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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-20 (441) 241 विषमता आदि का ज्ञान न होने से उसका पैर फिसल जाए और परिणाम स्वरूप उसके हाथपैर में चोट आ जाए और उसके शरीर के नीचे दब कर छोटे-मोटे जीव-जन्तु भी मर जाएं। इस लिए भगवान ने सबसे पहले मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन का जरूरी बताया है और बिना देखी भूमि में मल-मूत्र का त्याग करने की प्रवृत्ति को कर्म बन्ध का कारण बताया है। अब संस्तारक भूमि का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 21 // // 441 // ___ से भिक्खू वा, अभिकंखिज्जा सिज्जासंथारगभूमिं पडिलेहित्तए, नण्णत्थ आयरिएण वा उर्वज्झाएण वा जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा निवाएण वा, तओ संजयामेव पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयामेव बहुफासुअं सिज्जासंथारगं संथरिज्जा // 441 // II संस्कृत-छाया : . सः भिक्षुः वा अभिकाक्षेत शय्यासंस्तारकभूमी प्रत्युपेक्षयितुं, नाऽन्यत्र आचार्येण वा उपाध्यायेन वा यावत् गणावच्छेदकेन वा, बालेन वा वृद्धेन वा शैक्षेण वा ग्लानेन वा आदेशेन वा अन्तेन वा मध्येन वा समेन वा विषमेन वा तत: संयतः एव प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव बहुप्रासुकं थय्या-संस्ताककं संस्तरेत् // 441 // -III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यदि शय्या संस्तारक भूमि की प्रतिलेखना करनी चाहे तो आचार्य, उपाध्याय यावत् गणावच्छेदक, बाल, वृद्ध, नव दीक्षित, रोगी और महेमान रूप से आए साधु के द्वारा स्वीकार की हुई भूमि छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्यस्थान में या सम और विषम स्थान में या वायु युक्त और वायु रहित स्थान में भूमि की प्रतिलेखना, और प्रमार्जना करके तदनन्तर अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को बिछाए। IV टीका-अनुवाद : __वह साधु, आचार्य, उपाध्याय आदि ने स्वीकृत की हो, उससे अतिरिक्त = अन्य भूमी को अपने संथारे के लिये प्रडिलेहण करे... शेष सुगम है, किंतु आदेश याने प्राधूर्णक (महेमान' मुनी, तथा अंतेन वा इत्यादि पदों में जो तृतीया विभक्ति है, वह सप्तमी के अर्थ में जानीयेत
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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