________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-24 (444) 245 - यहां एक प्रश्न पैदा हो सकता है कि- जब साधु-साध्वी मुख पर मुखवस्त्रिका लगाते हैं, तब फिर श्वासोश्वास से होने वाली वायुकायिक जीवों की हिंसा को रोकने के लिए मुंह पर हाथ रखने की क्या आवश्यकता है ? हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यहां सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छवास के समय मुंह पर हाथ रखने का विधान नहीं किया है। यह विधान विशेष परिस्थिति के लिए है- जैसे उबासी, डकार एवं छींक आदि के समय जोर से निकलने वाली वायु का वेग मुखवत्रिका से नहीं रुक सकता है, ऐसे समय पर मुंह पर हाथ रखने का आदेश दिया गया है और मुख के साथ नाक का भी ग्रहण किया गया है। जैसे मुख से निकलने वाली वायु के वेग को रोकने के लिए मुख पर हाथ रखने को कहा है, उसी तरह अपान वायु के वेग को रोकने के लिए गुदा स्थान पर भी हाथ रखने का आदेश दिया है। आगम में चोलट्टक एवं मुखवस्त्रिका दोनों का विधान मिलता है। अतः इन प्रसंगों पर उक्त स्थानों पर हाथ रखने का उद्देश्य केवल वायुकायिक जीवों की रक्षा करना ही है। ___ अब सामान्य रूप से शय्या का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 24 // . // 444 / / से भिक्खू वा० समा वेगया सिज्जा भविज्जा, विसमा वेगया सिज्जा० निवाया वेगया० ससरक्खा वे० अप्पससरक्खा वे० सदसमसगा वे० अप्पदंसमसगा वे० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा वेगया० सउवस्सग्गा वेगया० निरुवसग्गा वेगया० तहप्पगाराहिं सिज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्गहियतरागां विहारं विहरिज्जा, नो किंचिवि 'गिलाइज्जा, एवं खलु० जं सव्वटेहिं सहिए सया जए तिबेमि // 444 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० समा वा एकदा शय्या भवेत्, विषमा वा एकदा शय्या भवेत्, प्रवाता वा एकदा० निवाता वा एकदा० सरजस्का वा एकदा० अल्पसरजस्का वा एकदा० सदंशमशका वा एकदा० अल्पदंशमशका वा एकदा० सपरिशाटा वा एकदा० अपरिशाटा वा एकदा० सोपसर्गा वा एकदा० निरुपसर्गा वा एकदा० तथाप्रकारामिः शय्याभिः संविद्यमानाभिः प्रग्रहीततरं विहारं विहरेत्, न किञ्चिदपि ग्लायात्, एवं खलु० यत् सवर्थिः सहितः सदा यतेत इति ब्रवीमि // 444 // III सूत्रार्थ : संयम शील साधु या साध्वी को किसी समय सम या विषम शय्या मिले, हवादार या