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________________ 200 2-1-2-2-9 (414) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होने से कई बार लोगों की श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता भी आ जाती है। नन्दन-मणिहार का उदाहरण हमारे सामने हैं। यह व्रतधारी श्रावक था, परन्तु साधुओं का संपर्क कम रहने से, साधुओं का दर्शन न होने से तथा अन्य धर्म के विचारकों एवं भिक्षुओं का संपर्क रहने से उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ गई थी। इसी तरह भगवान पार्श्वनाथ के पास से श्रावक व्रत स्वीकार करने के बाद सोमल ब्राह्मण को साधुओं का संपर्क नहीं मिला और परिणाम स्वरूप वह भी पथभष्ट हो गया था। इसलिए साधुओं को किसी एक गांव के स्थान विशेष से बंधकर नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत उन्हें समभाव पूर्वक गुरु परंपरा से निर्णीत जिल्ले या राज्य के सभी क्षेत्रों को संभालते रहना चाहिए। इससे उनकी साधना भी शुद्धरूप से गतिशील * रहती है और लोगों की श्रद्धा एवं चारित्र में भी अभिवृद्धि होती है। अब तृतीय अभिक्रान्त क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 9 // // 414 // इह खलु पाइणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति, तंजहा-आसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा, पवाणि वा, पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा, जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा वद्धकं० वक्कयकं० इंगालकम्म० कट्ठकं० शुण्णागार-गिरिकंदरसंति सेलोव द्वाणकम्मंताणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति, अयमाउसो ! अभिक्कंतकिरिया यावि भवइ // 3 // // 414 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, सन्ति एके श्राद्धाः भवन्ति, तद्यथा-गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा, तेषां च आचारगोचरः न सुनिशान्तः भवति, तं श्रद्दधानः प्रतीयमानः रोचमानैः बहवः श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वणीपकान् समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि कृतानि भवन्ति, तद्यथा- आसनानि वा आयतनानि वा देवकुलानि वा, सभाः वा प्रपा: वा, पण्यगृहाणि वा, पण्यशाला: वा, यानगृहाणि वा यानशाला: वा सुधाकर्मान्तानि वा भवनगृहाणि वा, वर्धक र्मान्तानि वा वल्क जक० अङ्गारकर्मान्तानि वा काष्ठगृहाणि श्मशानगृहाणि वा शून्यागार-गिरिकन्दरा-शान्तिशैलोपस्थापन- कर्मान्तानि वा ये भगवन्त: तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत गृहाणि
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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