________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-9 (414) 201 वा, तै: उपयद्भिः उपयन्ति, इयं हे आयुष्मन् ! अभिक्रान्तक्रिया च अपि भवति / / 3 / / / / 414 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्यमन् शिष्य ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से युक्त होते हैं। जैसे कि- गृहपति यावत् उनके दास-दासियां / उन्होंने साधु का आचार और व्यवहार तो सम्यक्तया नहीं सुना है परन्तु यह सुन रखा है कि उन्हें उपाश्रय आदि का दान देने से स्वर्गादि का फल मिलता है और इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं अभिरुचि रखने के कारण उन्होंने बहोत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी आदि का उद्देश्य करके तथा अपने कुटुम्ब का उद्देश्य रख कर अपने-अपने गांवों या शहरों में उन गृहस्थों ने बड़ेबड़े मकान बनाए हैं। जैसे कि लोहकार की शालायें, धर्मशालायें, देवकुल, सभाएं, प्रपाएं प्याउ, दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, यानशालायें, चूने के कारखाने, कुशा के कारखाने, बर्ध के कारखाने, बल्कल के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ के कारखाने, श्मशान भूमि में बने हुए मकान, शून्यगृह, पहाड़ के ऊपर बने हुए मकान पहाड़ की गुफा शान्तिगृह, पाषाण मण्डप, भूमिघर-तहखाने इत्यादि... और इन स्थानों में श्रमण-ब्राह्मणादि अनेक बार ठहर चुके हैं। यदि ऐसे स्थानों में जैन भिक्षु भी ठहरते हैं तो उसे अभिकान्त क्रिया कहते हैं अर्थात् साधु को ऐसे मकान में ठहरना कल्पता है। IV टीका-अनुवाद : यहां प्रज्ञापक की अपेक्षा से पूर्व आदि दिशाओं में श्राद्ध (श्रावक) या प्रकृतभद्रक गृहस्थ आदि होवे, किंतु वे साधुओं के आचार अच्छी तरह से जानते न हो, कि- साधुओं को ऐसा उपाश्रय (मकान) कल्पता है या नहि, किंतु उन्होंने कहिं से सुना हो कि- साधुओं को वसति (निवास) देने का फल स्वर्ग आदि है, अतः इस श्रद्धा, प्रतीति, रुचि से वे गृहस्थ उद्यान आदि में अपने लिये यानशाला आदि बनाते हुए उन श्रमण आदि को भी उतारा (निवास) देने के उद्देश से वे यानशाला आदि अधिक बड़े बनाये हो... जैसे कि- आदेशन याने लुहारशाला आदि... आयतन याने देवकुल के पास विभिन्न कमरे... तथा देवकुल (मंदिर), सभा याने चातुर्वेद्यादिशाला, प्रपा याने जलपान की परब, तथा पण्यगृह याने किराने की दुकान या कोठार... तथा यानगृह याने रथ आदि रखने के पडसाल... तथा सुधाकर्म याने जहां खडीसफेद मिट्टी, चुना आदि तैयार करतें हो ऐसे मकान... तथा दर्भ, वर्ध, वल्क, अंगार, और काष्ठकर्म के घर, तथा स्मशानगृह, शांतिकर्मगृह, गिरिगुफा, पाषाणमंडप इत्यादि प्रकार के मकान- घर में वे चरक, ब्राह्मण आदि साधुजन बार बार आकर ठहरतें हो, तब हे आयुष्मन् श्रमण ! ऐसी वसति (उपाश्रय) अभिक्रांतक्रियावाली याने अल्पदोषवाली होती है...