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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-1 (506) 453 IV टीका-अनुवाद : पर याने अपने आप के आत्मा से भिन्न ऐसे अन्य की क्रिया मन, वचन एवं काया के व्यापार स्वरुप जो क्रिया वह परक्रिया तथा आत्मा में होनेवाली जो क्रिया वह आध्यात्मिकी क्रिया तथा सांश्लेषिकी याने कर्म के संश्लेष उदय से होनेवाली क्रिया... ऐसी उन क्रियाओं को साधु आस्वादे नही अर्थात् चाहे नही... तथा मन से अभिलाषा भी न करे अर्थात् वाणी से वचन के द्वारा परक्रिया करावें भी नहि... तथा काया से भी परक्रिया साधु न करे, न करावे... अब विशेष प्रकार से परक्रिया के विषय में कहतें हैं... जैसे कि- शरीर की सेवा नहि करने वाले उस साधु के रज-धूलीवाले पैरों को कोइ श्रद्धालु श्रावक-गृहस्थ धर्म-बुद्धि से कपडे के टुकडे के द्वारा साफ करे बार बार साफ करे तब उस परक्रिया का साधु आस्वाद-मजा न ले और उस परक्रिया करने के लिये अन्य को न कहे... इसी प्रकार पैरों की मालीस करनेवाले या पग-चंपी करनेवाले को या पैरों को सहलाने वाले को या तैल आदि से मर्दन करनेवाले को या लोध्र आदि से पैरों का उद्वर्तन करनेवाले को या ठंडे जल आदि से पैरों को धोनेवाले को या कोई भी सुगंधि द्रव्य से विलेपन करनेवाले को या विशिष्ट धूप से धूपित करनेवाले को या पैरमें से कांटे को बाहार निकालनेवाले को इसी प्रकार लोहि (खून) आदि निकालनेवाले को साध मन से न चाहे वचन से ऐसा न करावे एवं काया से ऐसा न करे, न करावे। - इसी प्रकार शरीर के व्रण (घाव) आदि संबंधित सूत्र के भावार्थ को स्वयं ही जानें.. तथा बगीचे में प्रवेश एवं बाहार निकलने के वख्त पैर प्रमार्जन के सूत्र का भावार्थ भी पूर्ववत् स्वयं ही जान लें... इसी प्रकार संक्षेप रुचिवाले सत्रकार महाराज अतिदेश याने सुचन करतें हैं कि- उत्तर सप्तक में भी पूर्ववत् सूत्रार्थ तुल्य होने से स्वयं ही जानें... वह इस प्रकार- पूर्वोक्त रज-धूली प्रमार्जनादि परक्रिया प्रतिक्रिया न करने की प्रतिज्ञावाले साधु परस्पर याने एक साधु अन्य साध की ऐसी परक्रिया न करें... इसी प्रकार अन्योऽन्यक्रिया-सप्लैकक का भावार्थ स्वयं ही समझना चाहिए... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में परक्रिया के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के पैर आदि का प्रमार्जन करके उसे गर्म या ठण्डे पानी से धोए और उस पर तैल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिश करे या उसके घाव आदि को साफ करे या बवासीर आदि की विशेष रुप से शल्य चिकित्सा आदि करे, या कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर मालिश कर उसे आभूषणों से सुसज्जित करे, या उसके सिर के बाल, रोम, नख एवं गुप्तांगों पर बढ़े हुए बालों को देखकर उन्हें साफ करे, तो साधु उक्त क्रियाओ को न मन से चाहे और न वाणी एवं काया से उनके करने की
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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