________________ 452 2-2-6-6-1 (506) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा उरस्थं वा अवेयकं वा मुकुट वा प्रालम्बनकं वा सुवर्णसूत्रं वा आबध्नीयात् वा पिधापयेत वा न तां० / तस्य स्यात् परः आरामे वा उद्याने निहत्य वा प्रविश्य वा पादौ आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् न तां स्वादयेत् वा न तां नियमयेत् वा एवं नेतव्या अन्योऽन्यक्रिया अपि // 506 // III सूत्रार्थ : यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर कर्मबन्धन स्वरुप क्रिया करे तो मुनि उसको मन से न चाहे और न वचन से तथा काया से उसे करावे / जैसे—कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को साफ कर, प्रमार्जित करे, आर्मदन या संमर्दन करे- तैल से, घृत से या वसा (औषधिविशेष) से मालिश करे। एवं लोघ्र से, कर्क से, चूर्ण से या वर्ण से उद्वर्तन करे या निर्मल शीतल जल से, उष्ण जल से प्रक्षालन करे या इसी प्रकार विविध प्रकार के विलेपनों से आलेपन और विलेपन करे। धूप विशेष से धूपित और प्रधूपित करे, मुनि के पैर में लगे हुए कंटक आदि को निकाले और शल्य को शुद्ध करे तथा पैरों से पीप और रुधिर को निकाल कर शुद्ध करे तो मुनि गृहस्थ से उक्त क्रियाएं कदापि न चाहे एवं न कराए। इसी तरह यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में उत्पन्न हुए व्रण-सामान्य. फोडा, गंड, अर्श, पुलक और भगंदर आदि व्रणों को शस्त्रादि के द्वारा छेदन करके पूय और रुधिर को निकाले तथा उसको साफ करे एवं जितनी भी क्रियाएं चरणों के सम्बन्ध में कही गई हैं वे सब क्रियाएं व्रण आदि में करे, तथा साधु के शरीर पर से स्वेद और मल युक्त प्रस्वेद को दूर करे, एवं आंख, कान, दांत और नखों के मल को दूर करे तथा शिर के लम्बे केशों, और शरीर पर के दीर्घ रोमों को अथवा बस्ति (गुदा आदि गृह्य प्रदेश) गत दीर्घ रोमों को कतरे अथवा संवारे, तथा सिर में पड़ी हुई लीखों और जूंओं को निकाले। इसी प्रकार साधु को गोद में या पलंग पर बिठा कर या लिटाकर उसके चरणों को प्रमार्जन आदि करे, तथा गोद में या पलंग पर बिठा कर हार (18 लडीका) अर्द्धहार (9 लडीका) छाती पर पहननेवाले आभूषण (गहने) गले में डालने के आभूषणों एवं मुकुट, माला और सुवर्ण के सूत्र आदि को पहनाये, तथा आराम और उद्यान में ले जाकर चरण प्रमार्जनादि पूर्वोक्त सभी क्रियाएं करे, तो मुनि उन सब क्रियाओं को न तो मन से चाहे और न वाणी अथवा शरीर द्वारा उन्हें करवाने का आदेश-प्रयत्न करे। तथा इसी प्रकार साधु भी परस्पर में पूर्वोक्त क्रियाओं का आचरण . न करें।