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________________ 106 2-1-1-7-4 (374) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब वनस्पति काय की यतना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 374 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा. वणस्सइकायपइट्ठियं तहप्पगारं असणं वा, लाभे संते नो पडि०। एवं तसकाए वि // 374 / / // संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् अशनं वा वनस्पतिकाय प्रतिष्ठितं तथाप्रकारं अशनं वा, लाभे सति न प्रति० / एवं प्रसकायेऽपि || 374 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए यदि यह देखे कि गृहस्थ के वहां अन्नादि चतुर्विध आहार वनस्पति काय पर रखा हुआ है, तो ऐसे वनस्पतिकाय पर प्रतिष्ठित अशनादि को साधु प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार असकाय के विषय में भी जान लेना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- यह चारों प्रकार के आहारादि वनस्पतिकाय के उपर रहे हुए है, अतः ऐसे आहारादि को ग्रहण न करें... इसी प्रकार असकाय के विषय में भी जानीयेगा...' यहां “वनस्पतिकाय के उपर रहा हुआ" इत्यादि कहने से "निक्षिप्त" नाम का एषणादोष कहा... इसी प्रकार अन्य भी एषणा के दोषों को यथासंभव सूत्रों के माध्यम से जानीयेगा... और वे इस प्रकार हैं... शंकित - मक्षित - निक्षिप्त - पिहित - संहृत - आधाकर्म आदि की शंकावाला... जल आदि से... पृथ्वीकाय आदि के उपर... बीजोरे आदि फलों से ढांके हुए... बरतन में रहे हुए तुष (फोतरे) आदि को सचित्त पृथ्वीकाय आदि के उपर रखकर उसी बरतन से यदि आहारादि दे तब यह "संहृत' दोष होता है...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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