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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-5 (375) 107 8. 6. दायक - दान देनेवाला बालक, वृद्ध आदि... 7. उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित हो... अपरिणत- देने योग्य आहारादि अच्छी तरह से अचित्त न हुए हो, या दाता एवं ग्रहण करनेवालों के अच्छे भाव न हो... लिप्त - वसा = चरबी आदि से लिप्त हो... 10. छर्दित - आहारादि देते हुए नीचे बिखेरता हुआ दे... यह एषणा के दश (10) दोष हैं... अब पानक याने जल के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के घर में आहार वनस्पति या अस प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों) पर रखा हो या वनस्पति आदि खाद्य पदार्थों पर रखा हो तो साधु उस आहार को ग्रहण करें। इसका तात्पर्य यह है कि साधु के निमित्त स्थावर एवं अस किसी भी प्राणी को कष्ट होता हो तो साधु को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। . आहार की तरह पानी भी जीवन के लिए आवश्यक है और नदी, तालाब, कुएं आदि का जल सचित्त होता है। अतः साधु को कैसा पानी ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 375 // से भिक्खू वा से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा- उस्सेइमं वा 1, संसेइमं वा 2, चाउलोदगं वा 3, अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहणाधोयं अणंबिलं अव्वुक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / अह पुण एवं जाणिज्जा - चिराधोयं अंबिलं वुक्कंतं परिणयं विद्धत्थं फासुयं पडिगाहिज्जा। से भिक्खू वा से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा- तिलोदगं वा 4, तुसोदगं वा 5, जवोदगं वा 6, आयामं वा 7, सोवीरं वा 8, सुद्धवियडं वा 9, अण्णयरं वा तहप्पगारं वा पाणगजायं पुवामेव आलोइजा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं पाणगजायं ? से सेवं वयंतस्स परो वइज्जा - आउसंतो समणा ! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिंचिया णं उयत्तिया णं गिण्हाहि, तहप्पगारं पाणगजायं सयं वा गिव्हिज्जा, परो वा से दिज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिजा || 375 //
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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