________________ 108 2-1-1-7-5 (375) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पानकजातं जानीयात्, तद् - तथा - उत्स्वेदितं वा 1, संस्वेदितं वा 2, तन्दुलोदकं वा 3, अन्यतरं वा तथाप्रकारं पानकजातं जानीयात्, अधुनाद्यौतं, अनाम्लं, अव्युत्क्रान्तं, अपरिणतं, अविघ्वस्तं, अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् - चिरात् धौतं आम्लं व्युत्क्रान्तं परिणतं विघ्वस्तं प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात्। सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पनकजातं जानीयात्, तद्-यथातिलोदकं वा 4, तुषोदकं वा 5, यवोदकं वा 6, आचाम्लं वा 7, सौवीरं वा 8, शुद्धविकट वा 9, अन्यतरं वा तथाप्रकारं वा पानकजातं पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! भगिनि ! वा, दास्यसि मे (मह्यं) इत: अन्यतरत् पानकजातम् ? तस्य सः एवं वदतः परः वदेत्हे आयुष्मन् श्रमण ! त्वमेवेदं पानकजातं पतद्ग्रहेण वा उत्सिञ्चय अपवर्त्य वा गृहाण। तथाप्रकारं पानकजातं स्वयं वा गृह्णीयात्, परः वा तस्मै दद्यात्, प्रासुकं लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् || 375 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पार पानी के भेदों को जाने जैसे किचूर्ण से लिप्त बर्तन का धोवन, अथवा तिल आदि का धोवन, चावल का धोवन अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई धोवन तत्काल का किया हुआ हो। जिसका कि स्वाद चलित नहीं हुआ हो, रस अतिक्रान्त नहीं हुआ हो। वर्ण आदि का परिणमन नहीं हुआ हो और शस्त्र से भी परिणत नहीं हआ हो तो ऐसे पानी के मिलने पर भी उसे अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। यदि पुनः वह इस प्रकार जाने कि यह धोवन बहुत देर का बनाया हुआ है और इसका स्वाद बदल गया है, रस का अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि परिणत हो गया है और शस्त्र से भी परिणत हो गया है तो ऐसे पानी को प्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण कर ले। फिर वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में जलार्थ प्रविष्ट होने पर जल के विषय में इस प्रकार जाने, यथा-तिलों का धोवन, तुषों का धोवन, यवों का धोवन तथा उबले हुए चावलों का जल, कांजी के बर्तन का धोवन एवं प्रासुक तथा उष्ण जल अथवा इसी प्रकार का अन्य जल इनको पहले ही देखकर साधु गृहपति से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा- (स्त्री हो तो) हे भगिनि ! क्या मुझे इन जलों में से किसी जल को दोगी ? तब वह गृहस्थ, साधु के इस प्रकार कहने पर यदि कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस जल के पात्र में से स्वयं उलीचकर और नितार कर पानी ले लो। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ के देने पर उसे प्रासुक जान कर ग्रहण कर ले।