________________ 82 2-1-1-5-5 (363) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए गया हुआ साधु यह देखे किगृहस्थ के द्वार पर शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं की भीड़ खड़ी है, तो वह गृहस्थ के घर में प्रवेश न करके एकान्त स्थान में खडा हो जाए। यदि गृहस्थ उसे वहां खड़ा हुआ देख ले और उसे अशन आदि चारों प्रकार का आहार लाकर दे और साथ में यह भी कहे किमैं गृह कार्य में व्यस्त रहने के कारण सब साधुओं को अलग-अलग भिक्षा नहीं दे सकता। अतः आप यह आहार ले जाएं और आप सबकी इच्छा हो तो साथ बैठकर खा लें या आपस में बांट ले। इस प्रकार के आहार को ग्रहण करके वह भिक्षु (मुनि) अपने मन में यह नहीं सोचे कि- यह आहार मुझे दिया गया है, अतः यह मेरे लिए है और वस्तुतः मेरा ही होना चाहिए, यदि वह साधु ऐसा सोचता है तो उसे दोष लगता है। अतः वह मुनि उस आहार को लेकर वहां जाए जहां अन्य भिक्षु खड़े हैं और वह आहार दिखाकर उनसे यह कहे कि- गृहस्थ ने यह आहार हम सब के लिए दिया है। यदि आपकी इच्छा हो तो सम्मिलित खा लें और आपकी इच्छा हो तो सभी परस्पर बांट लें। यदि वे कहें कि- मुनि तुम ही सब को विभाग कर के दे दो, तो मुनि सरस आहार की लोलपता में फंसकर अच्छा-अच्छा आहार अपनी ओर न रखे, किंतु समभाव पूर्वक वह सभी का समान हिस्सा कर दे। यदि वे कहें कि- विभाग करने की क्या आवश्यकता है। सब साथ बैठकर ही खा लें, तो वह मुनि उनके साथ बैठकर अनासक्त भाव से आहार करे। __ प्रस्तुत पाठ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि- क्या जैन मुनि शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर आहार कर सकता है ? अपने द्वारा व्यहण किया गया आहार उन्हें दे सकता है ? इस पर वृत्तिकार का यह अभिमत है कि- उत्सर्ग मार्ग में तो साधु ऐसे आहार को स्वीकार नहीं करता किंतु दुर्भिक्ष आदि के प्रसंग पर अपवाद में वह इस तरह का आहार ग्रहण कर सकता है। परन्तु, इतना होने पर भी उसे अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर नहीं खाना चाहिए। किन्तु जो पार्श्वस्थ जैन मुनि या सांभोगिक हैं, उन्हें ओघ आलोचना देकर उनके साथ खा सकता है। आगम में एक स्थान पर गौतम स्वामी उदक पेढ़ाल पुत्र को कहते हैं कि- हे श्रमण ! मुनि किसी गृहस्थ या अन्यतीर्थिक (मत के) साधु के साथ आहार नहीं कर सकता। यदि वह गृहस्थ या अन्य मत का साधु दीक्षा ग्रहण कर ले तो फिर उसके साथ आहार कर सकता है। परन्तु, यदि वह किसी कारणवश दीक्षा का त्याग करके पुनः अपने पूर्व रूप में परिवर्तित हो जाए तो फिर उसके साथ साधु आहार नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट होता है कि- मुनि का आहार-पानी का सम्बन्ध अपने समान आचार-विचार वाले साधु के साथ ही है, अन्य