________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-5 (363) 81 उसका उपयोग करे। दूसरें श्रमणादि ऐसा कहने वाले साधु को कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! औप ही इसे हम सबको बांट दो ! तब वह साधु भोजन का विभाग करता हुआ अपने लिये स्वादिष्ट पकवान, उत्तम सब्जी, सरस भोजन, मनोज्ञ स्निग्ध पदार्थ, अथवा रुखा-सुखा भोजन ग्रहण न करे वह साधु अधुरा मूच्छभिाव न रखता हुआ। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिंडावलगक, या अतिथि, पहले से ही प्रवेश किये हुए हैं, तब उनके नजर में आवे ऐसा दरवाजे पर खडे न रहें... क्योंकिदाता एवं प्रतिव्याहक को असमाधि एवं अंतराय होने की संभावना है... अतः वह साधु उन श्रमणादि को भिक्षा के लिये आये हुए देखकर एकांत (निर्जन) में जाकर खडे रहें कि- जहां कोई आवे नही और देखे नही... अब वहां खडे हुए उस साधु को वह गृहस्थ आहारादि लाकर दे और कहे कि- आप बहुत सारे लोग भिक्षा के लिये आये हुए हो और मैं अन्य कार्यों में व्यस्त हूं अतः मैं आपको बांटकर नहि दे सकता... अतः हे श्रमणजन ! यह चारों प्रकार का आहार मैंने आप सब को दीया है, तो अब आप अपनी अपनी इच्छारूचि के अनुसार एक जगह भोजन करो या विभाग करके लें जाओ... इस प्रकार के आहारादि को उत्सर्ग विधि से साधु न लें... किंतु दुर्भिक्ष हो या मार्ग के श्रम से थक गये हो तो अपवाद विधि के कारण होने पर ग्रहण करें... और आहारादि को ग्रहण करके चुपचाप वह साधु जाता हुआ विचारे किमुझे अकेले को हि यह आहारादि दीया है, और अल्प भी है अतः मेरे अकेले को हि हो... ऐसी माया (कपट) न करे... किंतु वह साधु उस आहारादि को लेकर वहां श्रमण आदि के पास जावे और उन्हे पहले सब आहारादि दिखावे और कहे कि- हे श्रमणादि लोगों ! यह आहारादि आप सभी के लिये गृहस्थ ने दिया है अतः आप एक जगह भोजन करो या बांट लो... अब ऐसा कहते हुए उस साधु को कोई श्रमणादि ऐसा कहे कि- हे श्रमण ! आप ही हमें बांट कर दो, अब वह साधु ऐसा विभाग स्वयं तो न करे किंतु कारण होने पर यदि विभाग करना हो तो वह साधु अच्छे वर्णादिवाले सब्जी आदि स्वयं न ले... किंतु आहारादि में मूरिहित, अनासक्त, आदि गुणवाला वह सभी आहारादि को समान विभागसे बांटे... अब इस प्रकार विभाग करते हुए उस साधु को कोईक श्रमणादि कहे कि- हे श्रमण ! आप विभाग मत करो.. हम एक ही जगह रहकर भोजन करेंगे... किंतु वहां अन्य मतवालों के साथ साधु भोजन न करें... परंतु अपने समुदाय के साधुओं के साथ तथा सांभोगिक पासत्थादि के साथ सामान्य से आलोचना देकर भोजन करने की विधि से भोजन करें अर्थात् आहारादि वापरें... यहां पूर्व के सूत्र में बाहर के आलोकस्थान का त्याग करने को कहा, अब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने की विधि कहने के लिये सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे...