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________________ 80 2-1-1-5-5 (363) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् - श्रमणं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगकं वा अतिथिं वा पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य न तेषां संलोके सप्रतिद्वारे तिष्ठेत्, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्रम्य अनापातमसंलोके तिष्ठेत् सः तस्य परः अनापातमसंलोके तिष्ठत: अशनं वा आहात्य दद्यात्, स: च एवं ब्रूयात् हे आयुष्मन्तः श्रमणा: ! अयं मया अशनं वा, सर्वजनार्थं निसृष्टम्, तत् भुङ्ग्ध्वं वा परिभजध्वं वा, तं च एकाकी प्रतिगृह्य तुष्णीकः उत्प्रेक्षेत-अविदितं एतत् मम एव स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात्, स: तमादाय तत्र गच्छेत्, गत्वा स: पूर्वमेव आलोकयेत् - हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! अयं मह्यं अशनादिकः, सर्वजनार्थं निसृष्टः, तत् भुङ्ग्ध्वं वा यावत् परिभजध्वं वा, स: एनं एवं पर: ब्रयात - हे आयुष्मनः श्रमण ! त्वमेव परिभाजय, सः तत्र परिभाजयन न आत्मनः प्रचुरं शाकं उच्छ्रितं रसितं, मनोज्ञं स्निग्धं रुक्ष, सः तत्र अमुर्छित: अगृद्धः अनादृतः अनध्युपपन्न: बहुसमं एव परिभाजयेत्, तं परिभाजयन्तं परः ब्रूयात् - हे आयुष्मन् श्रमण ! मा त्वं रिभाजय, सर्वे एव एकात्रिता: स्थिता: तु भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा, सः तत्र भुजान: न आत्मना प्रचुरं यावत् रुक्ष, सः तत्र अमूर्छितः, बहुसमं एव भुञ्जीत वा पिबेत् वा || 383 || III सूत्रार्थ : वह भिक्षु और भिक्षुणी गृहस्थ के घर में प्रथम प्रवेश किये हुए कोई श्रमण, ब्राह्मण अथवा भिक्षुक आदि को देखकर ऐसी जगह पर खड़ा न रहे कि- वे उन्हें देख पाये. अथवा उनके जाने के मार्ग में खड़ा न रहे। केवलज्ञानी का फरमान है कि- वह कर्मबंधन का स्थान है। साधु को ऐसे स्थान पर खड़ा रहा हुआ देखकर गृहस्थ साधु के लिये आहार बनायेगा। इसलिए वोक्त कथन अनुसार ऐसी प्रतिज्ञा, ऐसा हेतु और ऐसा उपदेश आवश्यक है कि- ऐसे स्थान पर खड़ा न रहे कि- जिससे वह देख सके। किन्तु मुनि प्रथम किसी को आए हुए जानकर एकान्त स्थान में चले जाए। और एकान्त में जाकर ऐसी जगह पर खड़े रहे किजहां अन्य किसीका आवागमन न हो और कोई देख भी न सके। कदाचित् एकान्त में स्थिर साधु को गृहस्थ अशन आदि लाकर देवे और कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप सभी के लिये यह आहार मैंने दिया हैं। इसलिए आप सब इसका उपयोग करे (उपभोग करे) और परस्पर विभाजन कर ले। गृहस्थ का यह वचन सुनकर साधु चुपचाप ग्रहण करके मनमें विचार करें कि- यह आहार मात्र मेरे लिए ही योग्य है। अतः ऐसा विचारने वाला साधु मातृस्थान का स्पर्श करता है इसलिये साधु ऐसा न करे। किन्तु संमिलित आहार लेकर जहां श्रमणादि स्थित है वहां जाएं और कहे कि- आयुष्मन् श्रमणो / यह अशनादि सभी के लिये मिला हैं।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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