________________ 520 2-3-30 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन निर्ग्रन्थः साधर्मिकेषु अदत्तं अवगृह्णीयात्, अनुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निर्ग्रन्थः साधर्मिकेषु, न अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची इति पञ्चमी भावना। एतावता तृतीयं महाव्रतं सम्यक्० यावत् आज्ञया आराधितं च अपि भवति, तृतीयं भदन्त ! महाव्रतम् // 538 // III सूत्रार्थ : हे भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत के विषय में सर्वप्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। वह अदत्तादान चोरी से ग्रहण किया जाने वाला पदार्थ चाहे व्याम में, नगर में अरण्यअटवी में हो, स्वल्प हो, बहुत हो, स्थूल हो, अणु हो या एवं सचित अथवा अचित हो उसे न तो स्वयं ग्रहण करुंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करूंगा, मैं जीवन पर्यन्त के लिए इस महाव्रत को तीन करण और तीन योग से / ग्रहण करता हूं। और इस अदत्तादान (चौर्य कर्म) के पाप से मैं अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक करता हूं। इस तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है जो विचार कर मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचार किए मितावग्रह की याचना करने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि बिना विचार किये अवग्रह की याचना करने वाला निम्रन्थ अदत्त को ग्रहण करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ को विचार पूर्वक ही अवग्रह की याचना करनी चाहिए। अब दूसरी भावना को कहते हैं-गुरुजनों की आज्ञा लेकर आहार पानी करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, न कि बिना आज्ञा के आहार-पानी करने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की आज्ञा प्राप्त किये बिना आहार-पानी आदि करता है वह अदत्तादान का भोगने वाला होता है। इसलिए आज्ञा पूर्वक, आहार-पानी करने वाला ही निर्ग्रन्थ होता है। अब तृतीय भावना का स्वरुप कहते हैं—निर्ग्रन्थ-साधु क्षेत्र और काल के प्रमाण पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला होता है। केवली भगवान कहते हैं कि जो साधु मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला नहीं होता वह अदत्तादान को सेवन करने वाला होता है, अतः प्रमाण पूर्वक अवग्रह का ग्रहण करना यह तीसरी भावना है। अब चौथी भावना को कहते हैं—निग्रन्थ अवग्रह को बार बार ग्रहण करने वाला हो। .