________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-30 (538) 521 केवली भंगवान कहते हैं कि निर्यन्थ बार 2 अवग्रह के ग्रहण करने वाला हो यदि वह ऐसा * न होगा तो उसको अदत्तादान का दोष लगेगा। अतः जो बार 2 मर्यादा पूर्वक अवग्रह को याचना करने वाला होता है, वही इस व्रत की आराधना करने वाला होता है। पांचवीं भावना यह है कि जो साधक साधर्मिकों से भी विचार पूर्वक मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचारे आज्ञा लेने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि साधर्मियों से भी विचार कर मर्यादा पूर्वक आज्ञा लेने वाला निर्ग्रन्थ ही तृतीय महाव्रत की आराधना कर सकता है। यदि वह उनसे विचार पूर्वक ही अवग्रह की आज्ञा नहीं लेता है तो उसे अदत्तादान का दोष लगता है। इसलिए मुनि को सदा विचार पूर्वक ही आज्ञा लेनी चाहिए। इस प्रकार साधु सम्यग् रुप से तीसरे महाव्रत का आराधन किया करे। शिष्य यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन पर्यन्त के लिए अदत्तादान से निवृत होता हूं। IV टीका-अनुवाद : तीसरे महाव्रत की प्रथम भावना इस प्रकार है... सोच-विचारकर अवग्रह की याचना करें... आचार्य आदि की अनुज्ञा लेकर भोजनादि करें... अवग्रह को ग्रहण करते समय साधु परिमित याने जरुरत जितना ही अवग्रह ग्रहण करें... बार बार अवग्रह का परिमाण करें. साधर्मिक से भी परिमित अवग्रह सोच-विचारकर ही ग्रहण करें... इस प्रकार प्रभु की आज्ञा अनुसार तीसरे महाव्रत की आराधना की जाती है... // 538 // सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में स्तेय (चौर्य कर्म) के त्याग का उल्लेख किया गया है। चोरी आत्मा को पतन की ओर ले जाती है। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति साधना में संलग्न होकर आत्म शान्ति को नहीं प्राप्त कर सकता। क्योंकि इससे मन सदा अनेक संकल्प विकल्पों में उलझा रहता है। अतः साधक को कभी भी अदत्त ग्रहण नहीं करना चाहिए चाहे वह पदार्थ साधारण हो या मूल्यवान हो, छोटा हो बड़ा हो कैसा भी क्यों न हो, साधु को आज्ञा के बिना कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। वह न स्वयं चोरी करे, न दूसरे व्यक्ति को चोरी