________________ 522 2-3-30 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करने के लिए कहे और न चोरी करने वाले का समर्थन करे। इस तरह वह सर्वथा इस पाप से निवृत्त होकर संयम में संलग्न रहे। इस महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में तृतीय महाव्रत की 5 भावनाओं का उल्लेख किया गया है। पहले और दूसरे महाव्रत की तरह तीसरे महाव्रत की भी पांच भावनाएं होती हैं- 1. साधु किसी भी आवश्यक एवं कल्पनीय वस्तु को बिना आज्ञा ग्रहण न करे। 2. प्रत्येक वस्तु को ग्रहण करने जाने के पूर्व गुरु की आज्ञा ग्रहण करना, 3. क्षेत्र और काल की मर्यादा को ध्यान में रखकर वसति-अवग्रह ग्रहण करने जाना, 4. बार बार अवग्रह की आज्ञा ग्रहण करना और 5. साधर्मिक साधु की कोई वस्तु या अवग्रह-वसति ग्रहण करनी हो तो उसकी (साधर्मिक की) आज्ञा लेना। इस तरह साधु को बिना आज्ञा के कोई भी पदार्थ एवं अवग्रह-वसति नहीं ग्रहण करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु अपनी आवश्यकता के अनुसार कल्पनीय वस्तु की याचना कर सकता है। परन्तु, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने गुरु या साथ के बड़े साधु की आज्ञा लेकर ही उस वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाए। इसी तरह वस्तु ग्रहण करने जाते समय क्षेत्र एवं काल का भी अवश्य ध्यान रखे। आहार, पानी, वस्त्र-पात्र आदि को ग्रहण करने के लिए अर्ध योजन से ऊपर न जाए। इस तरह जिस समय घरों में आहार पानी का समय न हो, उस समय आहार पानी के लिए नहीं जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधु को जितनी बार वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाना हो उतनी ही बार गुरु की आज्ञा लेकर जाना चाहिए और किसी अपने साथी मुनि की वस्तु व्यहण करनी हो तो उसके लिए उसकी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। इस तरह जो विवेक पूर्वक वस्तु को ग्रहण करता है, वह नियन्थ कहलाता है। इसके विपरीत आचरण को अदत्तादान कहा गया है। अतः मुनि को सदा विवेक पूर्वक सोच विचार कर ही वस्तु ग्रहण करनी चाहिए। बिना आज्ञा के उसे कभी भी कोई पदार्थ एवं अवग्रह-वसति ग्रहण नहीं करना चाहिए। अब तृतीय महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि इस तरह विवेक पूर्वक आचरण करके ही साधक तीसरे महाव्रत का परिपालन कर सकता है। . अब चतुर्थ महाव्रत का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है