________________ 52 2-1-1-3-5 (352) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन / दोष हैं... और अवम (अल्पताके कारण) से होने वाले दोष यह है कि- अनेषणीय का उपभोग हो, तथा रसोइ थोडी बनाई हो और भिक्षुक लोग बहुत हो तब यह भोजन समारोह करनेवाले गृहस्थ को यह विचार आवे कि- हमारे इस समारोह में यह साधु लोग आये हुए हैं अतः इन्हें भोजन देना चाहिये इत्यादि सोचकर आधाकर्मादि आहार बनावे... इस स्थिति में अनेषणीय का परिभोग हो... अथवा दाता अन्य को देना चाहता हो तब बीच में हि यदि साधु वह आहारादि ले तब भी कलह होने की संभावना है... अतः इन दोषों का विचार करके संयत निर्यथ साधु तथाप्रकार की आकीर्ण या अवम संखडि को जानकर के संखडि की चाहना से वहां गमन (जाने) के लिये विचार भी न करें अब सामान्य से पिंड विषयक शंका आदि दोषों की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : संखडि के प्रकरण को समाप्त करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- संखडि में जाने से पारस्परिक संघर्ष भी हो सकता है। क्योंकि- संखडि में विभिन्न मत एवं पन्थों के भिक्षु एकत्रित होते है। अतः अधिक भीड़ में जाने से परस्पर एक-दूसरे के पैर से पैर कुचला जाएगा इसी तरह परस्पर हाथों, शरीर एवं मस्तक का स्पर्श भी होगा और एक-दुसरे से पहले भिक्षा प्राप्त करने के लिए धक्का-मुक्की भी हो सकती है। और भिक्षु या मांगने वाले अधिक हो जाएं और आहार कम हो जाए तो उसे पाने के लिए परस्पर वाक् युद्ध एवं मुष्टि तथा दण्ड आदि का प्रहार भी हो सकता है। इस तरह संखडि संयम सा घातक है। क्योंकि- वहां आहार शुद्ध नहीं मिलता, श्रद्धा में विपरीतता आने की संभावना है, सरस आहार अधिक खाने से संक्रामक रोग भी हो सकता है और संघर्ष एवं कलह उत्पन्न होने की संभावना है। इसलिए साधु को यह ज्ञात हो जाए कि अमुक गांव या नगर आदि में संखडि है तो उसे उस ओर आहार आदि के लिये नहीं जाना चाहिए। संखडि दो तरह की होती है- १-आकीर्ण और २-अवम / परिव्राजक, चरक आदि भिक्षुओं से व्याप्त संखडि को आकीर्ण और जिसमें भोजन थोड़ा बना हो और भिक्षु अधिक आ गए हों तो अवम संखडि कहलाती है। I सूत्र // 5 // // 352 / / * से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा. एसणिजे सिया अणेसणिज्जे सिया, वितिगिंछसमावण्णेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहप्पगारं असणं वा , लाभे संते नो पडिगाहिजा || 352 //