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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-5 (352) 53 II संस्कृतं-छाया : 'स: भिक्षु, वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् अशनं वा एषणीयः स्यात् अनेषणीय: स्यात् विचिकित्सा-समापन्नेन आत्मना अशुद्धया लेश्यया तथाप्रकारं अशनं वा, लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // 352 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करने के बाद साधु अथवा साध्वी को शंका होवे कि- यह अशनादिक निर्दोष है कि सदोष ? इस शंका से चित्त अस्थिर हो जाता है और समाधान न हो तो उस प्रकार के शंकित अशनादि मिलने पर भी ग्रहण नहीं करे / IV टीका-अनुवाद : वह साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करके चिंतन करे कि- एषणीय अहारादि में भी ऐसी शंका करे कि- यह आहारादि अनेषणीय तो नही है न ? इत्यादि शंकावाला साधु यह विचारे कि- यह आहारादि उद्गमादि दोषों से दुषित है इत्यादि चित्त की कलुषता से अशुद्ध लेश्यावाला मन होता है... इस स्थिति में तथा प्रकार के अनेषणीय दोष की शंकावाले आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... अब गच्छ से निकले हुए जिनकल्पी साधुओं की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि- साधु गृहस्थ के घर में आहार आदि के लिए प्रवेश करते ही यह देखे कि- मुझे दिया जाने वाला आहार एषणीय है या नहीं ? यदि उसे उस आहार की निर्दोषता में सन्देह हो तो उसे वह आहार नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- उस आहार के प्रति मन में सदोषता का संशय उत्पन्न होने पर उस संशय के दूर हुए बिना वह उस आहार को ग्रहण कर लेता है तो वह संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। और उसके उस मानसिक चिन्तन का प्रभाव संयम साधना पर पड़ता है। इस तरह उसकी आध्यात्मिक साधना का प्रवाह कुछ देर के लिए रुक जाता है या दूषित सा हो जाता है। अतः साधु को आहार के सदोष होने की शंका हो जाने पर उसे उस आहार को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। अब गच्छ से बाहर रहे हुए जिनकल्पी आदि मुनियों को आहार आदि के लिए कैसे जाना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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