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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-4 (351) 51 आकीर्णाऽवमा सङ्खडिं अनुप्रविश्यमानस्य (अनुप्रविशत:) पादेन वा पाद, आक्रान्तपूर्वः भवेत्, हस्तेन वा हस्तः सथालितपूर्व भवेत्, पात्रेण वा पात्रं आपतितपूर्वं भवेत्, शिरसा वा शिरः सङ्घट्टितपूर्वं भवेत्, कायेन वा कायं संक्षोभितपूर्वं भवेत् / दण्डेन वा अस्थना वा मुष्टिना वा लोष्ठेन वा कपालेन वा अभिहतपूर्वो वा भवेत् / तथा शीतोदकेन वा सिक्तपूर्वो भवेत्, रजसा वा परिद्यर्षितपूर्वो भवेत्, अनेषणीयः वा परिभुक्तपूर्वः भवेत्, अन्येभ्यः वा दीयमानं प्रतिग्राहितपूर्वः भवति, तस्मात् स: संयत: निर्ग्रन्थ: तथा प्रकारां "आकीर्णाऽवमा-" सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / / 351 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी ऐसा जाने कि- यह ग्राम यावत् राजधानी में जिमण (संखडी) होगा तो उस व्याम यावत् नगर में जिमण के विचार से भी जाने की इच्छा न करे। केवली भगवान ने ऐसा फरमाया है कि- ऐसा करने से कर्मबंधन होता है। यदि उस जिमण में बहत भीड होगी अथवा कम लोगों के लिये बनाये गए उस भोजन पर बहूत लोग जायेंगे तो साधु के पैर से दूसरोंका पैर या दूसरों के पैर से साधु का पैर कुचला जायेगा। अथवा हाथ से हाथ की ठोकर लगेगी, पात्रकी ठोकर से पात्र गीर जायेंगे। शिर से शिर टकरायेंगे, काया से काया को विक्षोम उत्पन्न होगा। और दूसरे लोग कुपित होकर उस साधु को दंडसे, हड्डी से, मुट्ठी से, ढेले से, ठीकरे से प्रहार भी करे अथवा सचित्त जल भी उसपर डाले, धूल से उनको भर दे और उनको अनेषणीय आहार लेना पड़े। अतः वह संयमी निर्गथ उस प्रकार के आकीर्ण और अवम ऐसे संखडी जिमण में जाने का विचार ही न करे। // 351 // IV. टीका-अनुवाद : ... वह साधु जब गांव आदि को देखने पर जाने कि- गांव में नगर में या राजधानी में संखडि होगी... और वहां चरक आदि अन्य भिक्षाचर भी होंगे... अतः गांव आदि में संखडी की इच्छा से साधु वहां गमन करने का विचार भी न करें... क्योंकि- केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं कि- यह संखडि कर्मबंध का कारण है, अब कहतें हैं कि- वह संखडि-जिमण चरक आदि साधुओं से व्याप्त (आकीर्ण) है अथवा अवम याने हीन (अल्प) जैसे कि- एक सौ (100) मनुष्यों के लिये भोजन बनाया हो और पांच सौ (500) आदमी इकट्ठे हुए हो... उस आकीर्ण और अवम संखडि में प्रवेश करने पर यह दोष होतें हैं... जैसे कि- पांव से पांव आक्रांत (दबाया गया) हो, हाथ से हाथ संचालित हुआ हो, पात्रसे पात्र आपतित हो, मस्तक से मस्तक संघट्टित हो, तथा शरीर से अन्य चरकादि के शरीर संक्षोभित हो, इस स्थिति में वे क्रोधित हुए चरकादि साधु कलह (झगडा) करे, और कोपायमान हुए वे दंडसे, हड्डी से, मुट्ठी से, लोष्ठ से कपाल से साधु को मारे, तथा शीतजल से सिंचे, अथवा धूली में घसीटे... इत्यादि संकीर्णता से होनेवाले
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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