________________ 78 2-1-1-5-4 (362) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : . स: भिक्षुः वा गृहपतिकुलस्य द्वारभागं कण्डकशाखया परिपिहितं प्रेक्ष्य तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अननुज्ञाप्य अप्रत्युपेक्ष्य अप्रमृज्य न उद्घाटयेत् वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा, तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अनुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव उद्घाटयेत् वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा || 362 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए मुख्य द्वार को कांटो से ढंका हुआ देखकर पहले गृहस्वामी की अनुज्ञा लिये बिना, अच्छी प्रकार से देखे बिना और प्रमार्जना किये बिना उस द्वार को न खोले, न प्रवेश करे। गृहस्वामी की आज्ञा लेकर, पश्चात् प्रतिलेखन (बार-बार) करके, बारम्बार प्रमार्जन करके, यतना पूर्वक खोलकर प्रवेश करे और उसमें से निकलें। / / 362 // IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु आहारादि के लिये निकले तब देखे कि- गृहस्थ के घर का द्वार कांटो से ढका हुआ है, इस स्थिति में साधु उन गृहस्थ के अवग्रह की आज्ञा लिये बिना एवं आंखों से देखे बिना तथा रजोहरणादि से प्रमार्जन किये बिना द्वार न खोले, न प्रवेश करे एवं न निकले... क्योंकि- आज्ञा लिये बिना ऐसा करने से गृहस्थ को गुस्सा आवे, या कोई वस्तु न मिलने पर साधु पर शंका हो... और द्वार खुला रहने पर अन्य पशु आदि का प्रवेश हो... इत्यादि कारणों से संयम एवं आत्मविराधना की संभावना है... किंतु यदि कोई विशेष कारण हो तब साधु उन गृहस्थों की अनुज्ञा लेकर तथा प्रमार्जनादि करके द्वार खोले... एवं प्रवेश करे... यहां सारांश यह है कि- स्वयं द्वार खोलकर प्रवेश न करें... यदि ग्लान याने रोगावस्था या आचार्यादि के योग्य कुछ आहारादि प्राप्त न हो तथा दुर्भिक्ष के कारण से आहारादि पर्याप्त प्राप्त न हो... इत्यादि कारण होने पर यदि दरवाजा बंद हो तब आवाज दें या स्वयं हि यथाविधि द्वार खोलकर प्रवेश करें। अब वहां प्रवेश करने पर क्या करना चाहिये वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय साधु यह देखे कि- घर का द्वार (कण्टक शाखा से) बन्द है, तब उस घर के व्यक्ति से