________________ 46 2-1-1-3-2 (349) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 अब यह संखडि का भोजन जिस प्रकार आदान होता है वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- साधु को संखडी में आहार के लिए जाने का निषेध किया गया है। पूर्व उद्देशक में बताया गया है कि- वहां जाने से साधु को अनेक दोष लगने की सम्भावना है। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- संखडि में आहार के लिये जाने से साधु को शारीरिक एवं मानसिक दोष होता है क्योंकि- संखडि में सरस एवं प्रकाम भोजन बनता है और दूध आदि पेय पदार्थ भी होते हैं अतः सरस एवं स्वादिष्ट पदार्थों के कारण वे अधिक खाए जा सकते हैं। इससे साधु को वमन हो सकती है, या पाचन क्रिया ठीक न होने से विसूचिका, शूल आदि भयंकर रोग हो सकते हैं और उसके कारण उसकी तुरन्त मृत्यु भी हो सकती है। इस तरह आर्त एवं रौद्र ध्यान में प्राण त्याग करके वह दुर्गति में जा सकता है। इसलिए साधु को ऐसे स्थानों में आहार आदि को नहीं जाना चाहिए। I सूत्र // 2 // // 349 // इह खलु भिक्खू गाहावईहिं वा गाहावईणीहिं वा, परिवायएहिं वा परिवाईयाहिं वा एगजं सद्धिं सुंडं पाउं जो वइमिस्सं हुरत्था वा उवस्सयं पडिलेहेमाणो नो लभिजा तमेव उवस्सयं संमिस्सीभावमावजिजा, अण्णमणे वा से मत्ते ,विप्परियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलिबे वा तं भिक्खं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कट्ट रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्ठामो, तं चेवेगइओ सातिजिज्जा अकरणिज्जं चेयं संखाए एए आयाणा आयतणाणि संति संविजमाणा पच्चवाया भवंति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए // 349 // II संस्कृत-छाया : इह खलु भिक्षुः गृहपतिभिः वा गृहपतिभाभिः वा, परिव्राजकै : वा परिवाजिकाभिः वा, एका सार्द्ध सीधुं पातुं यः व्यतिमिश्रं बहिः वा उपाश्रयं प्रत्युपेक्षमाण: न लभेत, तमेवोपाश्रयं संमिश्रीभावमापद्येत, अन्यमनाः वा सः मत्तः विपर्यासीभूतः स्त्रीविग्रहः वा क्लिबः वा तं भिv उपसङ्क्रम्य ब्रूयात् हे आयुष्यमन्तः श्रमणाः ! . आरामे वा उपाश्रये वा रात्रौ वा विकाले वा ग्रामधर्मनियन्त्रितं कृत्वा रहसि मैथुबधर्मासेवनया प्रवर्तामहे, तां चैव एकाकी अभ्युपगच्छेत्, अकरणीयं चैतत् सच्याय