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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-2 (349) 47 एते आदानाः, (आयतनानि) सन्ति, सञ्चियमानानि प्रत्यपायाः भवन्ति, तस्मात् स: संयत: निर्गन्थ: तथाप्रकारां पुरःसलडिं वा पश्चात्सलडिं वा सलडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय || 349 // III सूत्रार्थ : ___ इसके अतिरिक्त संखडि में गया हुआ साधु गृहपति एवं उस की पत्नी, परिव्राजकपरिवाजिकाओं के सहवास से मदिरा पान करके निश्चय ही अपनी आत्मा का भान भूल जाएगा, और उस स्थान से बाहर आकर उपाश्रय की याचना करेगा, परन्तु अनुकूल स्थान नहीं मिलने पर वह गृहस्थ या परिव्राजकों के साथ ही ठहर जाएगा, और मदिरा के प्रभाव से वह अपने स्वरूप को भूल कर अपने आप को गृहस्थी समझने लगेगा। उस समय स्त्री या नपुंसक पर आसक्त होने लगेगा उसे मदोन्मत्त देखकर रात्री में या विकाल मे स्त्री या नपुंसक उसके पास आकर कहेंगे कि- हे आयुष्मान ! श्रमण ! बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में चलकर ग्रामधर्म-मैथुन का आसेवन करें। इस प्रार्थना को सुनकर कोई अनभिज्ञ साधु उसे स्वीकार भी कर सकता है। अतः इस तरह आत्म पतन होने की सम्भावना होने के कारण भगवान ने संखडि में जाने का निषेध किया है और इसे कर्मबन्ध का स्थान कहा है। इसमें प्रति क्षण कर्म आते रहते हैं। इसलिए साधु को पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में जाने का मन में भी संकल्प नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : * संखडि में जाने से इस जन्म में अपाय (उपद्रव) होतें हैं और जन्मांतर में दुर्गात होती है.... जैसे कि- भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाला भिक्षु याने साधु गृहस्थों के साथ या गृहस्थों की भार्या के साथ, परिव्राजिकाओं के साथ वचनबद्ध होकर सोंड याने सीधु या अन्य प्रसन्नादि (मदिरा) का पान करके बाहर जाकर उपाश्रय की याचना करे, किंतु जब देखने पर भी मन चाहा उपाश्रय न मिले तब जहां संखडि है वहां या अन्य जगह गृहस्थ एवं परिवाजिकाओं के साथ मिश्र भाव को प्राप्त करता है, वहां पर वह साधु अन्यमनवाला उन्मत्त गृहस्थादि के साथ विपर्यास को पाया हुआ अपने आपके साधु जीवन को भूल-चूक जाता है तथा वे गृहस्थादि भी अपने आपको भूल जाते हैं... इस भ्रांत स्थिति में वह ऐसा चिंतन करे कि- मैं गृहस्थ हि हुं, अथवा स्त्री के शरीर में विपर्यासभाव को पाया हुआ अथवा नपुंसक के उपर, और वह स्त्री या नपुंसक भी उस भिक्षु याने साधु को पास में आकर कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! मैं आपके साथ एकांत की प्रार्थना करता हूं... जैसे कि- बगीचे में या कोई मकान (उपाश्रय) में रात्रि में या विकालवेला में... इस प्रकार उस साधु को इंद्रियो के विषयोपभोग के कार्य में बांधकर कहे कि- आप मेरा विप्रिय न करें... मैं प्रतिदिन आपके .
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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