________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका 2-1-1-3-1 (348) 45 %3 . आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 3 म पिण्डैषणा द्वितीय उद्देशक कहा, अब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, यहां परस्पर यह संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में दोष के कारण से संखडि में जाने का निषेध किया... अब यहां अन्य प्रकार से संखडि के दोष कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 348 // से एगइओ अण्णयरं संखडिं आसित्ता पिबित्ता छट्ठिज वा वमिज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमिज्जा, अण्णयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुप्पजिज्जा, केवली बूया आयाणमेयं // 348 // II संस्कृत-छाया : .. . सः एकदा अन्यतरां सलडिं आस्वाद्य पीत्वा छर्दि विदध्यात् वा, वमेत् वा, भुक्ते सति वा तस्य न सम्यक् परिणमेत्, अन्यतरः वा तस्य दुःखः, रोगातङ्कः समुत्पद्येत, केवली ब्रूयात्- आदानं एतत् // 348 // III सूत्रार्थ : संखडी में गए हुए साधु को वहां अधिक सरस आहार करने एवं अधिक दूधादि पीने * के कारण उसे वमन हो सकता है या उस आहार का सम्यक्तया पाचन नहीं होने से विसूचि का, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए भगवान ने संखडी में जाने के कार्य को कर्म आने का कारण कहा है। . IV टीका-अनुवाद : वह साधु कभी कोई समय एकाकी हो, और कोई भी पुरःसंखडि या पश्चात् संखडि (संखडि याने संखडि में बनाये गये आहारादि) का अतिशय लोलुपता एवं रसगृद्धि के कारण से भोजन, पान करके छर्दि याने वमन करें, अथवा पाचन ठीक न होने से पेट में चूंक आवे, विशूचिका हो अथवा अन्य कुष्ठादि रोग हो, अथवा तत्काल जीवित विनाशक आतंक-पीडा शूल आदि उत्पन्न हो, अतः सर्वज्ञ केवलज्ञानी महाराज कहतें हैं कि- यह संखडि का भोजन आदान याने कर्मबंध का कारण है...