________________ 476 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गया है। प्रस्तुत सूत्र में तो केवल प्रासंगिक संकेत रुप से उल्लेख किया गया है। कुछ प्रतियों में "सूइकम्माई' के स्थान पर “कोतुगभूति कम्माई' पाठ उपलब्ध होता है। जिसका अर्थ है-देव-देवियों ने विभिन्न मांगलिक कार्य किए। प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के नामकरण का उल्लेख किया गया है। भगवान के जन्म के दस दिन के पश्चात शुद्धि कर्म किया गया और अपने स्नेही-स्वजनों को बुलाकर उन्हें भोजन कराया और अनेक श्रमण-ब्राह्मणों एवं भिक्षुओं को भी यथेष्ट भोजन दिया गया। उसके बाद सिद्धार्थ राजा ने ज्ञातिजनों को यह बताया कि इस बालक के गर्भ में आते ही हमारे कुल में धन-धान्य आदि की वृद्धि होती रही है। अतः इसका नाम 'वर्द्धमान' रखते हैं। प्रस्तुत सूत्र में केवल गुण संपन्न नाम देने का उल्लेख किया गया है। परन्तु नाम करण की परम्परा का अनुयोगद्वार सूत्र में विस्तार से विवेचन किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि नाम संस्कार की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्वनाथ के श्रावक थे। फिर भी उन्होंने अन्य मत के श्रमण भिक्षुओं आदि को बुलाकर दान दिया। इससे स्पष्ट होता है कि आगम में गृहस्थ के लिए अनुकम्पा दान आदि निषेध नहीं किया गया है। गृहस्थ का द्वार बिना किसी भेद भाव के सब के लिए खुला रहता है। वह प्रत्येक प्राणी के प्रति दया एवं स्नेह भाव रखता है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान सुख पूर्वक बढ़ने लगे। उनके लालनपालन के लिए 5 धाय माताएं रखी हुई थीं। दूध पिलाने वाली, स्नान कराने वाली, वस्त्रालंकार पहनाने वाली, क्रीड़ा कराने वाली और गोद में खिलाने वाली, इन विभिन्न धाय माताओं की गोद में आमोद-प्रमोद से खेलते हुए भगवान ने बाल भाव का त्याग कर यौवन वय में कदम रखा। भगवान ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न थे। अतः प्राप्त भोगों में भी वे आसक्त नहीं हुए। वे शब्द, रस स्पर्श आदि भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते थे। इस कारण वे संक्लिष्ट कर्मो का बन्धन नहीं करते थे। क्योंकि भोगों के साथ जितनी अधिक आसक्ति होती है, कर्म बन्धन भी उतना ही प्रगाढ़ होता है। भगवान उदासीन भाव से रहते थे, अतः उन का कर्म बन्धन भी शिथिल ही होता था। . अब भगवान के गुण निष्पन्न नाम एवं उनके परिवार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहते हैं...