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________________ 156 2-1-1-11-2 (395) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दर्द हो गया था इस लिए मैं नहीं आ सका, इस प्रकार वह साधु मायास्थान का सेवन करता है, अतः इस तरह के पापकर्मों के स्थानों को सम्यक्तया दूर करके, रोगी साधु की आहार आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : साधु अच्छे आहारादि को प्राप्त करे तब मनोज्ञ या अमनोज्ञ, साधुओं को अथवा वहां रहनेवाले या प्राघूर्णकों को, ग्लान साधु को ध्यान में रखकर इस प्रकार कहे- कि- इस अच्छे आहारादि को व्यहण करो और ग्लान साधु के लिये ले जाओ... यदि वह ग्लानसाधु इस आहारादि को न वापरे, तो हमारे ग्लान साधु के लिये वापस लाओ... वह साधु यदि ऐसा कहने पर जवाब दे कि- अंतराय याने कोइ विघ्न के अभाव में मैं आहारादि ले आउंगा... इस प्रकार प्रतिज्ञा करके आहारादि लेकर ग्लान साधु के पास जाकर पूर्व के सूत्र में कहे गये आहारादि संबंधि रुक्ष आदि दोष कहकर उस ग्लान साधु वह आहारादि दीये बिना हि स्वयं हि लोलुपता से उस आहारादि को वापरकर बाद में उस साधु के पास जाकर कहे कि- ग्लान साधु की सेवा करते करते मुझे पेट में शूल की पीडा हुई अतः मुझे आनेमें अंतराय (विघ्न) हुआ... इसलिये मैं वह आहारादि लेकर नहि आया... इत्यादि प्रकार से वह साधु माया-स्थान का सेवन करे... किंतु ऐसी माया करना वह कर्मबंध का कारण है, यह बात अच्छी तरह जानकर माया का त्याग करके वह आहारादि ग्लान साधु को दे, अथवा आहारादि देनेवाले साधु को वापस लौटा दे... . अब पिंडाधिकार में हि सात पिंडैषणा का अधिकार कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र में कथित विषय को कुछ विशेषता के साथ बताया गया है। पूर्व सूत्र में कहा गया था कि यदि कोई साधु रोगी साधु की सेवा में स्थित साधु को यह कहकर मनोज्ञ आहार दे कि यह आहार रोगी को दे देना यदि वह न खाए तो तुम खा लेना, तो साधु उस आहार को अपने लिए छुपाकर नहीं रखे। किंतु प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि यदि किसी साधु ने प्रतिज्ञा पूर्वक यह कहा हो कि यह मनोज्ञ आहार रोगी साधु को ही देना यदि वह न खाए तो हमें वापिस लाकर दे देना, तो उस साधु को चाहिए कि वह आहार रोगी साधु को दे दे। स्वयं उसका उपभोग न करे। यदि वह स्वाद की लोलुपता से उस आहार को अपने लिए छुपाकर रखता है, तो माया का सेवन करता है। और उसकी इस वृत्ति से उसका दूसरा महाव्रत भी भंग होता है और रोगी को आहार की अंतराय देने के कारण अन्तराय कर्म का भी बन्ध होता है। इस तरह स्वाद के वश साधु अपना अधःपतन कर लेता है। वह आध्यात्मिक साधना से भ्रष्ट हो जाता है। अतः साधक को अपनी क्रिया में छल-कपट नहीं
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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