________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-2 (395) 155 वाले साधु का कर्तव्य हैं कि जिस साधु ने जैसा आहार दिया है उसे उसी रूप में बताए। ऐसा न करे कि उस मनोज्ञ आहार को स्वयं के लिए छुपाकर रख ले और बीमार साधु से कहे कि तुम्हारे लिए अमुक साधु ने यह रूखा-सूखा, खट्टा, कषायला आदि आहार दिया है, जो आपके लिए अपथ्यकर है। यदि स्वाद लोलुपता के वश साधु इस तरह से सरस आहार को छुपाकर उस रोगी साधु को दूसरे पदार्थ दिखाता है और उसके सम्बन्ध में गलत बातें बताता है तो वह माया-कपट का सेवन करता है। कपट आत्मा को गिराने वाला है। इससे महाव्र में दोष लगता है और साधु साधुत्व से गिरता है। अतः साधु को अपने स्वाद का पोषण करने के लिए छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसे आहार दिया गया है उसे उसी रूप में रोगी साधु के सामने रख देना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 395 // . भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु - समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता; से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुंजिज्जा आहारिज्जा, से णं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाई आयतणाइं उवाइक्कम्म / / 395 // // संस्कृत-छाया : .. भिक्षारा: नाम एके एवं आहुः - समाना: वा वसन्तः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन्तो वा, मनोज्ञं भोजनजातं लब्ध्वा, स: च भिक्षुः ग्लायति, तस्मै गृहीत, तस्मै आहरत, सः च भिक्षुः न भजीत, न आहरेत्, सः न खलु मम अन्तरायः, आहरिष्ये... इत्यादीनि आयतनानि उपातिक्रम्य // 395 // II सूत्रार्थ : ..भिक्षाशील साधु, संभोगी साधु वा एक क्षेत्र में स्थिरवास रहने वाला साधु गृहस्थ के वहां से मनोज्ञ आहार प्राप्त करके ग्रामानुग्राम विचरने वाले अतिथि रूप में आए हुए साधुओं से कहे कि तुम रोगी साधु के लिए यह मनोज्ञ आहार ले लो ? यदि यह रोगी साधु इसे न खाए तो यह आहार हमें वापिस लाकर दे देना, क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है। तब वह आहार लेने वाला साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न न हुआ तो मैं इस आहार को वापिस लाकर दे दूंगा, परन्तु रस लोलुपी वह साधु उस आहार को रोगी को न देकर स्वयं खा जाए और पूछने पर कहे मुझे शूल उत्पन्न हो गया था अर्थात् मेरे पेट में बहुत