________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-4 (469) 319 IT संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा न एवं वदेत्- नभोदेव ! इति वा गर्जति, देव ! इति वा, विद्युत्देव ! इति वा प्रवृष्टः देवः, निवृष्टः देव इति वा, पततु वा वर्षा मा वा पततु, निष्पद्यतां थस्यं मा वा निष्पद्यतां, विभातु रजनी मा वा विभातु, उदेतु सूयः, मा वा उदेतु, असौ राजा जयतु मा वा जयतु, न एतत्प्रकारां भाषां भाषेत। प्रज्ञावान् सः भिक्षुः वा अन्तरिक्ष ! इति वा गृह्यानुचर ! इति वा समुत्थित ! इति वा, निपतित इति वा वाचो वदेत् वृष्टबलाहक ! इति वा, एतत् खलु तस्य भिक्षो: भिक्षुण्या: वा सामग्यम्, यत् सर्वार्थः समितः सहित: सदा यतेत इति ब्रवीमि || 469 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी इस प्रकार न कहे कि आकाश देव है, गर्ज (बादल) देव है, विद्युत देव है, वे बरस रहा है, या निरन्तर बरस रहा है, एवं वर्षा बरसे या न बरसे। धान्य उत्पन्न हों या न हों। रात्रि व्यतिक्रान्त हो या न हो। सूर्य उदय हो या न हो। और यह भी न कहे कि इस राजा की विजय हो या इसकी विजय न हो। आवश्यकता पड़ने पर प्रज्ञावान् साधु अथवा साध्वी इस प्रकार बोले कि यह आकाश है, देवताओं के गमनागमन करने से इसका नाम गुह्यानुचरित भी है। यह पयोधर जल देने वाला है। चढे हुए बादल जल बरसाता है, या यह मेघ बरसता है, इत्यादि भाषा बोले। जो साधु या साध्वी साधना रूप पांच समिति तथा तीन गुप्ति से युक्त है उनका यह समव्य आचार है, अतः पंचाचार के परिपालन में वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु इस प्रकार की असंयत भाषा न बोले- वह इस प्रकार- जैसे कि- नभोदेव / गर्जना करता हुआ देव / तथा विद्युत् देव, देव बहोत बरसा, देव बरस गया, तथा बरसात पडे... या बरसात न पडे... धन्य का पाक हो, या न हो, रात्री पूर्ण हो, या पूर्ण न हो, तथा सूय उगे या न उगे... तथा यह राजा जय पावे या न पावे, इत्यादि प्रकार की देव आदि संबंधित भाषा न बोलें... किंतु यदि प्रयोजन याने कारण उपस्थित हो तब प्रज्ञावान् संयत साधु संयतभाषा