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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-1 (335) 9 पातुं वा सः तमादाय एकान्तमपक्रम्य दग्धस्थण्डिले वा अस्थिराशौ वा काष्ठराशौ वा तुषराशौ वा गोमयराशौ वा, अन्यतरे वा तथा प्रकारे स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव परिष्ठापयेत् // 335 // III सूत्रार्थ : . आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इन पदार्थों का अवलोकन करके यह जाने कि- यह अन्न, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थ, द्वीन्द्रियादि प्राणियों से, शाली चावल आदि के बीजों से और अंकुरादि हरी सब्जी से संयुक्त है या मिश्रित है या सचित्त जल से गीला है तथा सचित मिट्टी से अवगुंठित है या नहीं ? यदि इस प्रकार का आहारपानी, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थ गृहस्थ के घर में या गृहस्थ के पात्र में हों तो साधु उसे अप्रासुक-सचित्त तथा अनेषणीय-सदोष मानकर ग्रहण न करे, यदि भूल से उस आहार को ग्रहण कर लिया है तो वह भिक्षु उस आहार को लेकर एकान्त स्थान में चला जाए और एकान्त स्थान में या आराम-उद्यान या उपाश्रय में जहां पर गीन्द्रिय आदि जीव नहीं हैं, गोधूमादि बीज नहीं हैं और अंकुरादि हरियाली नहीं है,, एवं ओस और जल नहीं है अर्थात् तृणों के अग्रभाग पर जल नहीं है ओस बिन्दु नहीं हैं, द्वीन्द्रियादि जीव जन्तु एवं उनके अण्डे आदि नहीं हैं. तथा मकडी के जाले एवं दीमकों (जंत-विशेष) के घर आदि नहीं हैं. ऐसे स्थान पर पहंच कर, सदा यतना करने वाला साधु उस आहार में से सचित्त पदार्थों को अलग करके उस आहार एवं पानी का उपभोग कर ले, यदि वह उसे खाने या पीने में असमर्थ है तो साधु उस आहार को लेकर एकांत स्थान पर चला जाए और वहां जाकर दग्धस्थंडिल भूमि पर, अस्थियों के देर पर, लोह के कूड़े पर, तुष के ढेर पर और गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य 'प्रासुक एवं निर्दोष स्थान पर जाकर उस स्थान को आंखों से अवलोकन करके और रजोहरण से प्रमार्जित करके उस आहार को उस स्थान पर परठ त्याग दे। IV टीका-अनुवाद : मूल एवं उत्तर गुणवाले तथा विविध प्रकार के अभिग्रहों को धारण करनेवाले भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाले भिक्षु याने साधु या साध्वी क्षुधा वेदनादि छह कारणों से आहार ग्रहण करतें हैं। 1. वेदना (पीडा-भूख का दुःख) के कारण से. . वैयावृत्त्य ग्लान-बाल-वृद्धादि की सेवा के लिये. ईर्यासमिति ईर्यासमिति के पालन के लिये. संयम संयमाचरण के परिपालन के लिये
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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