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________________ 308 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जो तीर्थकर होंगे, उन सब ने इसी प्रकार से चार तरह की भाषा का वर्णन किया है, करते हैं और करेंगे। तथा ये सब भाषा के पुद्गल अचित्त हैं, तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले हैं, तथा उपचय और अपचय अर्थात् मिलने और विछुड़ने वाले एवं विविध प्रकार के परिणामों को धारण करने वाले होते हैं। ऐसा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थकर देवों ने प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : इदम्-सर्वनाम प्रत्यक्ष एवं समीप का वाचक होने से यह अंतःकरण (मन) से उत्पन्न हुए वाणी-उच्चार सुनकर एवं समझकर वह भावसाधु भाषा-समिति के द्वारा हि वचन बोलें... तथा पूर्व के साधुओं ने नहि बोले हुए ऐसे अनुचित वचन साधु कभी भी न बोलें... वे इस प्रकारजैसे कि- कितनेक लोग क्रोध से बोलतें हैं कि- "तु चोर है, तुं दास-नौकर है" इत्यादि... तथा कितनेक लोग मान-अभिमान से बोलतें हैं कि- में उत्तम-जातिवाला हुं और तुं तो हीनअधम जातिवाला है इत्यादि... तथा कितनेक लोग माया से बोलतें हैं कि- आज मैं बहोत हि बिमार (अस्वस्थ) हुं, अथवा इस प्रकार या अन्य जुठा समाचार कोइ भी कपट-उपाय से कहतें हैं, और बाद में क्षमा याचना करके कहतें हैं कि- एका एक- सहसा यह ऐसा मुझ से बोला गया है... इत्यादि... तथा लोभ से कहे कि- “आज इन्हों ने मुझे कहा है, अतः मैं आज कुछ भी लाभ प्राप्त करुंगा' इत्यादि... तथा किसी के दोष-क्षति को जाननेवाले लोग उनके दोषों को प्रगट करते हुए कठोर-भाषा बोलतें हैं... अथवा तो नहिं जानते हुए भी जुठे आल (आरोप) चढाकर कठोर वचन बोलतें हैं... यह सभी क्रोध आदि से बोले जानेवाले वचन सावध याने पाप या निंदा स्वरुप है अतः ऐसे सावध = पापवाले वचनों का साधु विवेक के साथ त्याग करें... अर्थात् साधु विवेकी बनकर सावध वचनों का त्याग करें... तथा किसी के साथ वार्तालाप करते करते कभी भी सावधारण याने "जकार" वाले वचन न बोलें जैसे कि- आज निश्चित हि वृष्टि = बरसात इत्यादि होगा हि... या नहि होगा... इत्यादि... अथवा कोडक साध भिक्षा के लिये गहस्थों के घर में गये हो. और देर से भी नहि आने पर अन्य साधु ऐसा कहे कि- इस आहारादि को हम वापर लें वह साधु तो निश्चित हि आहारादि लेकर हि आएगा... अथवा ऐसा कहे कि- यदि आप उनके लिये कुछ आहारादि रखेंगे तो वह निश्चित हि आहारादि लेकर नहि आएगा... अथवा वहीं पर हि भोजन करके आएगा... या बिना भोजन किये हि आएगा... इत्यादि "निश्चित" प्रकार के वचन न बोलें... तथा और भी इस प्रकार की “जकार" वाली बात न कहें जैसे कि- कोइक राजा आदि आये हुए हैं... या... नहि आये हैं... तथा आ रहें हैं, या नहि आतें हैं... या आएंगे... या नहि आएंगे... इसी प्रकार नगर एवं मठ (वसति) आदि विषय में भी भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल संबंधित बात को स्वयं हि समझीयेगा... यहां सारांश यह है कि- जिस बात को जब तक अच्छी तरह से ठीक नहि जानतें तब तक- "यह ऐसा हि है" इत्यादि न बोलें...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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