________________ 96 2-1-1-6-6 (370) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नमक असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त सचित्त यावत् जीवजन्तुवाली शीला पर कूटा है, कूटते हैं या कूटेंगे। पीसा है, पीस रहे है अथवा पीसेंगे तब ऐसा वह अप्रासुक जानकर उसको साधु ग्रहण नहीं करे | 369 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- बिल याने खदान से निकला हुआ नमक जैसे कि- सैंधव आदि तथा समुद्र के किनारे पर क्षारवाले जल के संपर्क से उत्पन्न होनेवाला नमक तथा रुमकादि लवण को पूर्व कहे गये विशेषणवाली शिला के उपर कणिक बनावे तथा उस कणिकाकार नमक को पीसा हो, या पीसते हो या पीसेंगे... तब ऐसे प्रकार के लवण भी अकल्पनीय जानकर साधु ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- खान से एवं समुद्र से उत्पन्न लवण (नमक) को साधु ग्रहण न करे। इसके साथ सैन्धव, सौवर्चल (संचर) आदि सभी प्रकार का सचित्त नमक साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई गृहस्थ सचित्त नमक को सचित्त शिला पर उसके टुकड़े-टुकड़े करके दे या उसका बारीक चूर्ण बनाकर दे तो उसे अप्रासुक समझकर ग्रहण न करे। "बिल' शब्द खान एवं 'उब्भियं' शब्द समुद्र का बोधक है। और भिंदिसु एवं 'रुचिंसु' इन उभय क्रियाओं से क्रमशः खंड-खंड करने एवं बारीक पीसने का निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त लवण शब्द के उपलक्षण से यहां समस्त सचित्त पृथ्वीकाय का ग्रहण किया गया है। अतः संयमशील साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की यत्ना करनी चाहिए, अर्थात् पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना नहीं करनी चाहिए। 'अप्रासुक' शब्द से यह भी सूचित किया गया है कि- यदि सचित्त नमक अन्य पदार्थ या शस्त्र के संयोग से अचित्त हो गया है, तब साधु के लिए अप्रासुक एवं अव्याह्य नहीं है। अब अग्निकाय के आरम्भ का निषेध करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 70 // से भिक्खू वा से ज० असणं वा, अगणिनिक्खितं तहप्पगारं असणं वा, अफासुयं नो० केवली बूया-आयाणमेयं, असंजए भिक्खुपडियाए उस्सिंचमाणे वा निस्सिंचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमजमाणे वा ओयारेमाणे वा उव्वत्तमाणे वा