________________ 494 2-3-24 (532) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उस समय देवों के आगमन से आकाश मंडल वैसा ही सुशोभित हो रहा था जैसे खिले हुए पुष्पों से युक्त उद्यान या शरद् ऋतु में कमलों से भरा हुआ पद्म सरोवर शोभित होता जिस प्रकार से सरसों, कचनार तथा चम्पक वन फूलों से सुहावना प्रतीत होता है, उसी तरह उस समय आकाश मंडल देवों से सुशोभित हो रहा था। उस समय पटह, भेरी, झांझ शंख आदि श्रेष्ठ वादित्रों से गुंजायमान आकाश एवं भूभाग बड़ा ही मनोहर एवं रमणीय प्रतीत हो रहा था। उस समय देव तत, वितत, घन और झुषिर इत्यादि अनेक तरह के बाजे बजा रहे थे तथा विभिन्न प्रकार के नृत्य कर रहे थे एवं बमी सबद्ध नाटक दिखा रहे थे। IV टीका-अनुवाद सूत्रार्थ पाठ सिद्ध होने से टीका नहि है... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथाओं में यह अभिव्यक्त किया गया है कि भगवान देव निर्मित सहस्त्र वाहिका शिविका में बैठे और देवों एवं मनुष्यों ने उस शिविका को उठाया। शकेन्द्र और ईशानेन्द्र उस शिविका के दोनों ओर खड़े थे और भगवान के ऊपर रत्न एवं मणियों से विभूषित डंडों से युक्त चामर झुला रहे थे। उस समय देव एवं मनुष्य सभी के चहेरों पर उल्लास एवं हर्ष परिलक्षित हो रहा था और आज सब अपने आपको धन्य मान रहे थे। जिस समय भगवान शिविका में बैठकर जा रहे थे, उस समय, किन्नर, गन्धर्व आदि बड़े हर्ष के साथ बाजे बजा रहे थे और विभिन्न प्रकार के नृत्य कर रहे थे। सारा वातावरण हर्ष एवं उल्लास से भरा हुआ था। इतने हर्ष एवं आनन्द के वातावरण में भी भगवान प्रशस्त अध्यवसायों के साथ शान्त बैठे हुए थे। उस समय भगवान ने षष्ठ भक्त-बेले का तप स्वीकार कर रखा था। अब भगवान की दीक्षा से संबंधित विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 24 // // 532 // तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपखेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तरा