________________ 290 2-1-3-3-1 (461) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा वलयानि वा गहनानि वा गहनविदुर्गाणि वा वनानि वा वनविदुर्गाणि वा, पर्वता: वा पर्वतविदुर्गाणि वा, अगडानि वा तडागानि वा द्रहाणि वा नद्यः वा वाप्य: वा पुष्करिण्य: वा दीर्घिका: वा गुजालिकाः वा सरांसि वा सर:पङ्क्तय: वा सर: सरः पङ्क्तयः वा न बाहुं उत्क्षिप्य उत्क्षिप्य यावत् निायेत्, केवलीo ये तत्र मृगा वा पशव: वा पक्षिण: वा सरीसृपाः वा सिंहाः वा जलचराः वा स्थलचराः वा खचराः वा सत्त्वाः, ते उत्-असेत् वा वित्रसेत् वा, वृत्तिं वा शरणं वा काङ्क्षत, "चारः" इति अयं श्रमणः / अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टां० यत् न बाहू उत्क्षिप्य उक्षिप्य निायेत, ततः संयतः एव आचार्योपाध्यायादिभिः सार्धं ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 461 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी को व्यामानुयाम विहार करते हुए मार्ग में यदि खेत के क्यारे यावत् गुफाएं, पर्वत के ऊपर के घर, भूमि गृह, वृक्ष के नीचे या ऊपर का निवास स्थान, पर्वतगुफा, वृक्ष के नीचे व्यन्तर का स्थान, व्यन्तर का स्तूप और व्यन्तरायतन, लोहकारशाला यावत् भवनगृह आवें तो इनको अपनी भुजा ऊपर उठाकर, अगुलियों को फैला कर या शरीर को ऊंचा-नीच करके न देखे। किन्तु यत्नापूर्वक अपनी विहार यात्रा में प्रवृत्त रहे। यदि मार्ग में नदी के समीप निम्न-प्रदेश हो या खरबूजे आदि का खेत हो या अटवी में घोड़े आदि पशुओं के घास के लिए राजाज्ञा से छोडी हुई भूमी-बीहड़ एवं खड्डा आदि हो, नदी से वेष्टित भूमि हो, निर्जल प्रदेश और अटवी हो, अटवी में विषम स्थान हो, वन हो और वन में भी विषम स्थान हो, इसी प्रकार पर्वत, पर्वत पर का विषम स्थान, कूप, तालाब, झोलें, नदियें बावडी, और पुष्करिणी और दीर्घिका अर्थात् लम्बी बावडिएं गहरे एवं कुटिल जलाशय, बिना खोदे हुए तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियें और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो इनको भी अपनी भुजा उपर उठाकर या अंगुली पसार कर, शरीर को ऊंचा नीचा करके न देखे, कारण यह है कि- केवली भगवान इसे कर्मबन्धन का कारण बतलाते हैं, जैसे कि- उन स्थानों में मृग, पशु-पक्षी, सांप, सिंह, जलचर, स्थलचर और खेचर जीव होते हैं, वे साधु को देखकर त्रास पावेंगे वित्रास पावेंगे और किसी बाड़ की शरण चाहेंगे तथा वे सोचे कि यह साधु हमें हटा रहा है, इसलिए भुजाओं को उंची करके साधु न देखे किन्तु यत्ना पूर्वक आचार्य और उपाध्याय आदि के साथ व्यामानुयाम विहार करता हुआ संयम का पालन करे। IV टीका-अनुवाद : एक गांव से दुसरे गांव की और जा रहे साधु यदि मार्ग में देखे कि- परिखा याने गहरी खाइ (गर्ता) प्राकार याने गढ (किल्ले) कूटागार याने पर्वत के उपर के घर, भूमीघर