________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-1-1-1 (497) 409 तब उसके मिलने पर भी उसे अप्रासुक और अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। शेष वर्णन शय्या अध्ययन के समान जानना चाहिए। साधु को सदोष स्थान का छोड़ कर स्थान की गवेषणा करनी चाहिये और उसे उक्त स्थान में चार प्रतिमाओं के द्वारा बैठे बैठे या खड़े होकर कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिए। मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, और अचित्त भीत आदि का सहारा लूंगा, तथा हस्त पादादि का संकोचन प्रासारण भी करूंगा एवं थोडे पगले चलने रूप मर्यादित भूमि में भ्रमण भी करूंगा। मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में ठहरूंगा, अचित्त भीत आदि का आश्रय भी लूंगा, तथा हस्त पाद आदि का संकोचन प्रसारण भी करूंगा किन्तु आसपास कहिं भी भ्रमण नहीं करूंगा। 3. मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, अचित्त भीत आदि का सहारा भी लूंगा, परन्तु हस्तपादादि का संकोच प्रसारण एवं भ्रमण नहीं करूंगा। मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में ठहरुंगा, परन्तु भीत आदि का अवलम्बन नहीं लूंगा तथा हस्त पाद आदि का संचालन और भ्रमण आदि कार्य भी नहीं करूंगा, परन्तु एक स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर का सम्यकतया निरोध करूंगा और अभी मैं परिमित काल के लिये शरीर के ममत्व का परित्याग कर चुका हूं अतः उक्त समय में यदि कोई मेरे केश, श्मश्रू और नख आदिका उत्पाटन करेगा तब भी मैं अपने ध्यान को नहीं तोडूंगा। इन पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का धारक साधु अन्य किसी भी साधु की-अवहेलना न करे किन्तु सभी साधुओं के प्रति सौम्य-भाव रखता हुआ विचरे / यही संयमशील साधु का समय आचार है, इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह पूर्व कहा गया साधु जब स्थान याने वसति में रहना चाहे तब वह साधु गांवनगर आदि में प्रवेश करके ठहरने के स्थान की गवेषणा-शोध करे... यदि वह स्थान (मकान) अंडे से युक्त हो यावत् मकडी के जाले से युक्त हो तब ऐसा स्थान अप्रासुक मानकर प्राप्त होने पर भी व्यहण न करें... इसी प्रकार अन्य सूत्रों का भावार्थ शय्या की तरह जानियेगा... यावत् जल से अंकुरित हुए कंद हो तो भी ऐसे स्थान का ग्रहण न करें... अब अवग्रह-प्रतिमा के विषय में कहतें हैं... पूर्व कहे गये एवं अब कहे जानेवाले जो