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________________ 410 2-2-1-1-1 (497) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भवन-वसति कर्मबंध के कारण हो ऐसे उन स्थानों का त्याग करके साधु अभिग्रह स्वरुप चार प्रतिमाओं के द्वारा प्राप्त निर्दोष स्थान में रहना चाहे... उनमें पहली प्रतिमा इस प्रकार है... जैसे कि- कोइ साधु ऐसा अभियह करे कि- में अचित्त स्थान में ही निवास करुंगा तथा अचित्त कुड्यादि (दिवारादि) का शरीर से अवलंबन करुंगा... तथा हाथ एवं पैर आदि का आकुंचन एवं प्रसारण स्वरुप स्पंदन याने हिलचाल करुंगा तथा उसी स्थान में ही सविचार याने मर्यादित जगह में पैर आदिसे आवागमन करूंगा... यह पहली प्रतिमा है... दूसरी अवग्रह प्रतिमा... हाथ एवं पैर आदि का थोडा आकुंचन एवं प्रसारण आदि क्रिया करूंगा किंतु आवागमन नही करुंगा... तीसरी प्रतिमा- हाथ-पैर आदि का संकोचन एवं प्रसारण करुंगा किंतु दीवार का आलंबन नहिं लंगा एवं पैर से आवागमन नही करुंगा... चौथी अवग्रह प्रतिमा- हाथ-पैर का संकोचन, प्रसारण तथा दीवार का आलंबन एवं पैर आदि से आवागमन इत्यादि कुछ भी नही करुंगा... इसी प्रकार परिमित-मर्यादित समय पर्यंत काया का व्युत्सर्ग (त्याग) करनेवाला वह साधु केश श्मश्रु लोम एवं नख का विसर्जन (त्याग) करके अवग्रह किये हुए स्थान में रहूंगा... इत्यादि प्रतिज्ञा करके कायोत्सर्ग में रहा हुआ वह साधु मेरु पर्वत की तरह निष्प्रकंप याने स्थिर खडा रहे... तथा यदि कोई प्राणी केश आदि को उखेडे (खींचे) तो भी उसी स्थान से ध्यान भंग करके अन्य जगह नही जाऊंगा किंतु उसी स्थान में मेरुपर्वत की तरह निश्चल खडा रहूंगा... ऐसी प्रतिज्ञा करके वह साधु काउस्सग्ग ध्यान करे और वहां यदि कोइ केश आदि खींचे तो भी उस स्थान से चलायमान न होवे... इन चारों प्रतिमा में से कोई भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करके काउस्सग्ग ध्यान में रहा हुआ साधु उसी स्थान में रहे हुए किंतु अवग्रह प्रतिमा की प्रतिज्ञा नही किये हुए अन्य साधु की निंदा न करें तथा अपने आपका उत्कर्ष (अभिमान) भी करें तथा इस विषय में ऐसा अन्य भी कुछ भी न बोलें... इति याने इस प्रकार हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हें कहता हूं... कि- जो मैंने श्री वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से सुना है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में कायोत्सर्ग की विधि का उल्लेख किया गया है स्थान के संबन्ध में पूर्व सूत्रों में बताई गई विधि को फिर से दुहराया गया है कि साधु को अण्डे एवं जालों आदि से रहित निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिए और उसके साथ वसति-अवग्रह ग्रहण के चार अभिग्रहों का भी वर्णन किया गया है।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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