________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-3 (408) 191 के लिये चतुर्विध आहार को तैयार करने एवं उसके लिये सामग्री एकत्रित करने में लगेगा, उस आहार को देखकर साधु भी उसका आस्वादन करना चाहेगा या उसमें आसक्त हो जायेगा। इसलिये तीर्थंकर भगवान ने पहले ही यह प्रतिपादन कर दिया है कि साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिये। IV टीका-अनुवाद : गृहस्थादि से युक्त ऐसे उपाश्रय में रहने से साधु को कर्मबंध होता है... जैसे किगृहपति ने अपने आपके लिये विविध प्रकार के आहारादि बनाये हो, और उसके बाद साधुओं के लिये पुनः आहारादि तैयार करे, अथवा रसोइ के लिये गेहुं चावल आदि लाकर दे... तब ऐसे तथाप्रकार के आहारादि यदि साधु वापरना चाहे... या वहां पर हि आहारादि की इच्छा से बैठना चाहे... किंतु साधु को ऐसा नहि करना चाहिये इत्यादि पूर्ववत् जानीयेगा... v सूत्रसार : प्रस्तुत उभय सूत्रों में यह बताया गया है कि यदि साधु गृहस्थ के साथ ठहरेगा तो गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने तथा सर्दी निवारणार्थ ताप के लिए लकड़ी आदि की व्यवस्था कर चुकने के बाद अतिथि रूप में ठहरे हुए साधु के लिए भोजन बनाने की सामग्री एकत्रित करेगा और उसके शीत को दूर करने के लिए लकड़िये खरीदेगा, उसका छेदन-भेदन कराएगा। उसे ऐसा करते हुए देखकर साधु के भावों में भी परिवर्तन आ सकता है और वह उस भोजन एवं आताप में आसक्त होकर संयम पथ से गिर भी सकता है। क्योंकि आत्मा का विकास एवं पतन भावों पर ही आधारित है। भावों के बनते एवं बिगड़ते विशेष देर नहीं लगती है। जैसे अपस्मार (मृगी) का रोगी पानी को देखते ही मूछित होकर गिर पड़ता है। इसी तरह आत्मा में सत्ता रूप से स्थित औदयिक भाव बाहर का निमित्त पाकर जागृत हो उठते हैं और आत्मा को सन्मार्ग के शिखर से पतन के गर्त में गिरा देता है। इसलिए साधु को सदा सावधान रहना चाहिए और उसे सदा ऐसे निमित्तों से बचकर रहना चाहिए जिससे उसकी आत्मा पतन की और गतिशील न हो। इसीलिए आगम में यह आदेश दिया गया है कि साधु को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 3 // // 408 // आयणमेयं भिक्खुस्स गाहावड़णा सद्धिं संव० इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिण्णपुटवाइं भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए