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________________ 192 2-1-2-2-3 (408) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विरूवरूवाइं दारुयाई भिंदिज्ज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकायं उज्जा० पज्जा० तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहप्पगारे० // 408 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिना सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मनः स्वार्थाय विरूपसपाणि दारुणि भिन्नपूर्वाणि भवन्ति, अथ पश्चात् भिक्षुप्रतिज्ञया विरूपरूपाणि दारुणि भिन्द्यात् वा क्रीणीयात् वा प्रामीत्येत् वा दारुणा वा दारुपरिणाम कृत्वा अग्निकायं उज्ज्वालयेत् प्रज्वालयेत्, तत्र भिक्षुः अभिकाङ्केत आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा विवर्तयितुं वा, अथ भिक्षूणां० यत् न तथाप्रकारे // 408 // III सूत्रार्थ : इसी प्रकार गृहस्थों के साथ ठहरने से भिक्षु को एक यह भी दोष लगेगा कि गृहस्थ ने अपने लिये नाना प्रकार का काष्ठ-इंधन एकत्रित कर रखा है, फिर वह साधु के लिये नाना प्रकार के काष्ठों का भेदन करेगा, मोल लेगा अथवा किसी से उधार लेगा, और काष्ठ से काष्ठ को संघर्षित करके अग्निकाय को उज्जवलित और प्रज्वलित करेगा, और उस गृहस्थ की तरह साधु भी शीत निवारणार्थ अग्नि का आताप लेगा और उसमें आसक्त हो जायगा / इस लिये भगवान ने साधु के लिये ऐसे मकान में ठहरने का निषेध किया है। , IV टीका-अनुवाद : पूर्ववत् यहां भी इस प्रकार काष्ठादि के प्रज्वलन का सूत्र जानीयेगा... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'गाहावइस्स' पद में तृतीया विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। और ‘उवस्सए' अर्थात् उपाश्रय शब्द का प्रयोग स्थानक के अर्थ में नहीं, प्रत्युत मकान मात्र के अर्थ में हुआ है। और जब हम प्रस्तुत पाठ का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उपाश्रय का अर्थ गृहस्थों से युक्त एवं भोजनशाला के निकटवर्ती स्थान विशेष पर ही स्पष्ट होता है ! इसे अन्तरगृह भी कहते हैं और कल्पसूत्र में साधु-साध्वी को अन्तरगृह में ठहरने एवं मल-मूत्र के त्याग करने आदि क्रियाओं का निषेध किया गया है और दशवैकालिक सूत्र में भी अन्तरगृह में निवास करने एवं पर्यंक आदि पर बैठने का निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि संयम की सुरक्षा के लिए मुनि को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थ अपने परिवार सहित निवसित हो।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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