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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 161 अब दुसरी पिंडैषणा है संसृष्ट हाथ एवं संसृष्ट पात्र... इत्यादि... शेष सुगम है... अब तीसरी पिंडैषणा कहतें हैं कि- प्रज्ञापक की अपेक्षा से जो पूर्व आदि दिशाएं हैं उनमें जो कोइ श्रद्धालु गृहस्थ हैं, उनके घर में विध विध प्रकार के बरतन में आहारादि पहले से हि रखे हुए हो... जैसे कि- थाला, सूपडा, वांस से बने हुए छाबडी आदि, तथा मूल्यवान् मणी आदि से बने हुए बरतन... यदि प्रासुक एवं एषणीय आहारादि हो तो ग्रहण करें... यहां संसृष्ट असंसृष्ट एवं सावशेष द्रव्य इन तीन पदों के आठ (8) भंग होतें हैं... उनमें जो आठवा भंग (विकल्प) है वह इस प्रकार है... संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र एवं सावशेष द्रव्य... इस प्रकार की पिंडेषणा गच्छ से निकले हुए जिनकल्पिकादि को भी कल्पती है... और शेष सात (7) भंग वाली यह पिंडैषणा सूत्र एवं अर्थ की हानि आदि कारण को लेकर गच्छ में रहे हुए साधुओं को कल्पती है... अब अल्पलेप नाम की जो चौथी पिंडैषणा है उसका स्वरूप कहतें हैं... अल्पलेप जैसे कि- फोतरे निकले हुए शेके हुए शालि आदि को पृथुक कहतें हैं... इत्यादि से लेकर तंदुलपलंब याने शेके हुए शालि आदि तंदुल (चावल)... यहां पृथुक आदि ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म दोष अल्प है और पर्यायजात दोष अल्प है... क्योंकि- यहां तुष-फोतरों का त्याग करना होता है, इस प्रकार यह अल्पलेप है... और भी वाल चने इत्यादि... यह सब कुछ यदि प्रासुक एवं एषणीय हो तो ग्रहण करते हैं... ___अब ‘अवगृहीता' नाम की पांचवी पिंडैषणा कहतें हैं... जैसे कि- वह साधु या साध्वीजी म. जब आहारादि के लिये गृहस्थ के घर गये हो तब यदि वह गृहस्थ भोजन करने के लिये जो कुछ भोजन थाली में लेकर बैठे हो और कहे कि- यह आहारादि ग्रहण कीजीये... उस वख्त यदि उस गृहस्थ ने पहले से हि जल से हाथ या बरतन धोया हुआ हो, अर्थात् जल से भीगे हाथ एवं बरतन हो तो आहारादि ग्रहण न करें... किंतु यदि जल से भीगे हाथ एवं पात्र का जल सुख गया हो तब प्रासुक एवं एषणीय जानकर आहारादि ग्रहण करें... . अब “प्रग्रहीता' नाम की छठी पिंडैषणा कहतें हैं... वह इस प्रकार... गृहस्थ ने अपने लिये या दुसरों के लिये पिठरक (बरतन) आदि से चम्मच आदि से आहारादि निकाल कर खाने के लिये हाथ उंचा उठाया हो और इस स्थिति में यदि साधु को आहारादि दें तब वह प्रयहिता नाम की पिंडैषणा होती है... इस प्रकार यदि आहारादि पात्र में हो या हाथ में हो, और प्रासुक एवं एषणीय है ऐसा जानने में आवे, तब ग्रहण करें... अब “उज्झितधर्मिका' नाम की जो सातवी पिंडैषणा है वह सुगम है... इन सातों पिडैषणाओं में संसृष्ट आदि आठ भंग होतें हैं... किंतु चौथी पिंडैषणा में विभिन्नता है, क्योंकिवह अल्पलेपा है अतः संसृष्ट आदि का अभाव है... आठ भंग इस प्रकार होतें हैं...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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