________________ 160 2-1-1-11-3 (396) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जल से हस्तादि को धोकर अपने खाने के लिए, सकोरे में, कांसे की थाली में अथवा मिट्टी के किसी भाजन में भोजन रक्खा हुआ है- उसके हाथ जो सचित्त जल से धोए थे अचित्त हो चुके हैं तथाप्रकार के अशनादि आहार को प्रासुक जानकर साधु ग्रहण कर ले, यह पांचवीं पिण्डैषणा है। छठी पिण्डैषणा यह है- गृहस्थ ने अपने लिए अथवा किसी दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन निकाला है परन्तु दूसरे ने अभी उसको ग्रहण नहीं किया है तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो तो मिलने पर प्रासुक जानकर उसे ग्रहण कर ले। यह छठी पिण्डैषणा है। सातवीं पिण्डैषणा यह है- वह साधु या साध्वी, जिसे बहुत से पशु-पक्षी मनुष्य-श्रमण (बौद्ध भिक्षु) ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लोग नहीं चाहते, तथा प्रकार के उज्झित धर्म वाले भोजन को स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले. यह सातवीं पिंडैषणा है। इस प्रकार ये सात पिंडैषणाए कही हैं। तथा अपर सात पानैषणा अर्थात् पानी की एषणाएं हैं। जैसे कि अलिप्त हाथ और अलिप्त.भाजन आदि, शेष सब वर्णन पूर्वोक्त पिंडैषणा की भांति समझना चाहिए। और चौथी पानैषणा में नानात्व का विशेष है। वह साधु या साध्वी पानी के विषय में जाने जैसे कि तिलादि का धोवन जिसके ग्रहण करने पर पश्चातकर्म नहीं लगता है तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। शेष पानैषणा पिंडैषणा की तरह जाननी चाहिए IV टीका-अनुवाद : यहां “अथ' शब्द अन्य अधिकार के विषय में प्रयुक्त है.. प्रश्न - वह कौन सा अधिकार है ? उत्तर - सात पिंडेषणा और सात पानेषणा... अब साधु या साध्वीजी म. सात पिंडैषणा एवं सात पानैषणा को जाने - समझें... वे इस प्रकार- 1. असंसृष्टा, 2. संसृष्टा, 3. उद्धृता, 4. अल्पलेपा, 5. उद्गृहीता, 6. प्रगृहीता, 7. उज्झितधर्मिका... __ जिनशासन में साधु दो प्रकार के होते हैं... 1. गच्छ में रहे हुए, स्थविरकल्पी 2. गच्छ से बाहार रहे हुए जिनकल्पी... इन दोनों में जो साधु गच्छ में रहे हुए हैं, उन्हें सातों पिंडैषणा के ग्रहण की अनुमति है, किंतु जो जिनकल्पिकादि गच्छ से बाहार रहे हुए हैं, उन्हें पहली दो पिडैषणा का ग्रहण नहि होता है... शेष पांच पिंडैषणा का हि अभिग्रह करतें हैं... अब इन सातों पिडैषणाओं का क्रमशः स्वरूप कहतें हैं... वहां पहली पिंडैषणा का स्वरूप है असंसृष्ट हाथ एवं असंसृष्ट पात्र... अब द्रव्य (आहारादि) दो प्रकार से होते हैं... 1. सावशेष एवं 2. निरवशेष... इनमें से जो निरवशेष है, उनमें पश्चातकर्म दोष होता है, तो भी गच्छ में बाल ग्लान आदि प्रकार के साधु होतें हैं अतः निषेध नहि है... इसी कारण से हि सूत्र में भी इस बाबत विशेष विचार नहि कीया गया है... शेष सुगम है....