________________ 362 2-1-5-2-2 (484) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भाणियव्वं, से हंता ! अहमवि मुहत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा . विप्पवसिय उवागच्छिस्सामि अवियाई एयं ममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा || 484 // II संस्कृत-छाया : स: एकाकिकः मुहूर्तकं प्रातिहारिकं वस्त्रं याचेत यावत् एकाहेन वा द्वि० त्रि० चतु० पञ्चाहेन वा उषित्वा, उपागच्छेत्, न तथा वस्त्रं आत्मना गृह्णीयात्, न अन्योऽन्यस्मै दद्यात्, न प्रामित्यं कुर्यात्, न वस्त्रेण वस्त्रपरिणामं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य एवं वदेत्हे आयुष्मन् ! श्रमण ! अभिकाङ्क्षसि वस्त्रं धारयितुं वा परिहतुं वा ? स्थिरं वा सत् न परिच्छन्द्य परिष्ठापयेत्, तथाप्रकारं वस्त्रं ससन्धितं वस्त्रं तस्मै एव निसृजेत्, न स्वादयेत् / स: एकाकिकः एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि वस्त्राणि ससन्धितानि मुहूर्तकं, यावत् एकाहेन वा०, उषित्वा, उपागच्छन्ति, तथा० वस्त्राणि न आत्मना गृहन्ति, न अन्योऽन्यस्मै ददते, तत् चैव यावत् न स्वादन्ते, बहुवचनेन प्रातिहारिकं वस्त्रं याचित्वा यावत् एकाहेन वा उषित्वा, उपागमिष्यामि, अपि च एतत् मम एव स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् // 484 / / III सूत्रार्थ : कोई एक साधु मुहूर्त आदि काल का उद्देश्य रख कर किसी अन्य साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करके एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन या पांच दिन तक किसी ग्रामादि में निवास कर वापिस आ जाए, और वह वस्त्र उपहत हो गया हो तो वह साधु ग्रहण न करे, न परस्पर देवे, न उधार करे और न अदला-बदली करे तथा न अन्य किसी के पास जाकर यह कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस वस्त्र को ले लो, तथा वस्त्र के दृढ़ होने पर उसे छिन्नभिन्न करके परठे भी नहीं, किन्तु उपहत वस्त्र उसी साधु को दे दे। कोई साध इस प्रकार के समाचार को सुन कर-अर्थात अमुक साधु अमुक साधु से कुछ समय के लिए वस्त्र मांग कर ले गया था और वह वस्त्र उपहत हो जाने पर उसने नहीं लिया अपितु उसी को दे दिया ऐसा सुनकर वह यह विचार करे कि यदि में भी मुहूर्त आदि का उद्देश्य रख कर प्रातिहारिक वस्त्र की याचना कर यावत् पांच दिन पर्यन्त किसी अन्य ग्रामादि में निवास कर फिर वहां पर आ जाऊंगा तो वह वस्त्र उपहत हो जाने से मेरा ही हो जाएगा, इस प्रकार के विचार के अनुसार यदि साधु प्रातिहारिक वस्त्र का ग्रहण करे तो उसे मातृस्थान का स्पर्श होता है अर्थात् माया के सथन का दोष लगता है। इसलिए साधु ऐसा न करे स्था... बहुत से साधुओं के सम्बन्ध में भी इसी तरह समझना चाहिए।