________________ 148 2-1-1-10-3 (392) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी जानीयेगा... इस सूत्रका यहां ग्रहण इसलिये किया है कि- कहिं कोई साधु को लुता-दोष के शमन के लिये अच्छे वैद्य के कहने से शरीर के बाहार के भागों में उपयोग लेने के लिये... क्योंकि- स्वेद = पसीने आदि से ज्ञानादि में उपकारक होने से सफलता देखी गइ है, यहां भुज धातु का अर्थ बाह्योपभोग हि लेवें... इसी प्रकार गृहस्थ के आमंत्रण आदि की विधि यावत् पुद्गल... सूत्र सुगम है... इस प्रकार छेदसूत्र के अभिप्राय से ग्रहण करने पर कांटे आदि के त्याग की विधिवाला यह सूत्र भी सुगम हि है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को ऐसे पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिएं जिनमें से थोड़ा भाग खाया जाए और अधिक भाग फैंकने में आए। जैसे-छिला हुआ इक्षु खण्ड, मूंग, एवं बल्ली आदि की फली जो आग आदि के प्रयोग से अचित्त हो चुकी है, किंतु साधु को नहीं लेनी चाहिए। आग में भूनी हुई मूङ्गफली, पिस्ते, नोजे (छिलके सहित) भी नहीं लेने चाहिए। इसी तरह अग्नि पर पके हुए या अन्य तरह से अचित्त हुए फल भी नहीं लेने चाहिएं। जिनमें गुठली, कांटे आदि फैंकने योग्य भाग अधिक हो। यदि कभी शीघ्रतावश गृहस्थ ऐसे पदार्थ पात्र में डाल दे तो फिर मुनि को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उक्त पदार्थों को लेकर अपने स्थान पर आ जाए और उनमें से खाने योग्य भाग खा लेवे और अवशेष भाग (गुठली, कांटे आदि) एकान्त प्रासक स्थान में परठ-फैंक दे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'बहु अट्ठियं मंसं' और 'मच्छं वा बहु कंटयं' पाठ कुछ विवादास्पद है। कुछ विचारक इसका प्रसिद्ध शाब्दिक अर्थ ग्रहण करके जैन साधुओं को भी मांस भक्षक कहने का साहस करते हैं। वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इसका निराकरण करने का विशेष प्रयत्न नहीं किया। वे स्वयं लिखते हैं कि बाह्य भोग के लिए अपवाद में मांस आदि का उपयोग किया जा सकता है। परन्तु, वृत्तिकार के पश्चात् आचाराङ्ग सूत्र पर बालबोध व्याख्या लिने वाले उपाध्याय पार्श्वचन्द्र सूरि ने लिखा है कि आगम में अपवाद एवं उत्सर्ग का कोई भेद नहीं किया है और जो कंटक आदि को एकान्त स्थान में परठने का विधान किया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि अस्थि एवं कण्टक आदि फलों में से निकलने वाले बीज (गुठली) या कांटे आदि ही हो सकते हैं। प्रज्ञापना सूत्र में बीज (गुठली) के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। यथा‘एगळ्यिा बहुट्ठिया' एक अस्थि (बीज) वाले हरड़े आदि और बहुत अस्थि (बीज) वाले अनार, अमरूद आदि। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र के पूर्व में वनस्पति का स्पष्ट निर्देश है और उत्तर भाग में मांस शब्द का उल्लेख है। इ तरह पूर्व एवं उत्तर भाग का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर होता है। एक ही प्रकरण