________________ 176 2-1-2-1-3 (400) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते, न अन्यत्र आगाढाऽनागालैः कारणैः स्थान वा न चेतयत् / सः आहृत्य वा प्रहृत्य वा, न तत्र उत्सृष्टं प्रकुर्यात्, तद् यथा-उच्चारं वा प्रस्त्रवणं वा खेलं वा सिवानकं वा वान्तं वा पित्तं वा पूतं वा शोणितं वा अन्यतरं वा शरीरावयवं वा, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, सः तत्र त्यागे प्रकुर्वन् प्रचलेत् वा सः तत्र प्रपलन् वा प्रपतन् वा हस्तं वा यावत् शीर्ष वा अन्यतरं वा काये इन्द्रियजालं विनाशयेत् वा, प्राणिनः, अभिहन्यात् वा जाव ववरोविज्ज वा, अह भिक्खूणं पुटवोवट्ठा, जं तहप्पगारं उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा चेतयेत् // 400 // III सूत्रार्थ : वह साधु या साध्वी उपाश्रय को जाने, जैसे कि- जो उपाश्रय एक स्तम्भ पर है, मंच पर है, माले पर हे, प्रासाद पर-दूसरी मंजिल पर या महल पर बना हुआ है, तथा इसी प्रकार के अन्य किसी ऊंचे स्थान पर स्थित है तो किसी असाधारण कारण के बिना, उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि न करे। यदि कभी विशेष कारण से उसमें ठहरना पड़े तो वहां पर प्रासुक शीतल या उष्ण जल से, हाथ, पैर, आंख, दान्त और मुख आदि का एक या एक से अधिक बार प्रक्षालन न करे। वहां पर मल आदि का उत्सर्जन न करे यथा-उच्चार (विष्ठा) प्रस्त्रवण (मूत्र) मुख का मल, नाक का मल, वमन, पित्त, पूय, और रुधिर तथा शरीर के अन्य किसी अवयव के मल का वहां त्याग न करे। क्योंकि केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। यदि वह मलादि का उत्सर्ग करता हुआ फिसल पड़े या गिर पड़े, तो उसके फिसलने या गिरने पर उसके हाथ-पैर, मस्तक एवं शरीर के किसी भी भाग में चोट लग सकती है और उसके गिरने से स्थावर एवं त्रस प्राणियों का भी विनाश हो सकता है। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकरादि का पहले ही यह उपदेश है कि इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं, साधु कायोत्सर्गादि न करे और न वहां ठहरे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय एक थंभे के उपर हि रहा हुआ है, या मंच के उपर, या प्रासाद याने दो मंजिलवाला महल, या हऱ्यातल याने भूमीगृह... या अन्य ऐसे प्रकार के वसति-उपाश्रय में स्थान शय्या निषधा आदि न करें, हां यदि ऐसे कोई विशेष प्रयोजन न हो तब / यदि पूर्व कहे गये स्वरुपवाला उपाश्रय हो एवं तथा प्रकार के कोई विशेष प्रयोजन हो तो ऐसे उपाश्रय को ग्रहण करके वहां उपाश्रयमें शीतजल आदि से हाथ न धोयें, तथा वहां मल आदि अशुचि विसर्जन न करें, क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं किउपाश्रय में ऐसा अनुचित करने से आदान याने आत्म एवं संयम की विराधना से कर्मबंध का कारण होता है।