________________ 212 2-1-2-3-1 (421) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 ___ अध्ययन - 2 उद्देशक - 3 // शय्यैषणा // द्वितीय उद्देशक कहा, अब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में कहा है कि- अल्पक्रिया वसति शुद्ध याने निर्दोष है... अब यहां तीसरे उद्देशक में प्रथम सूत्र से सदोष याने पूर्व कहे गये प्रकार से विपरीत वसति का स्वरुप कहतें I सूत्र // 1 // // 421 // से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं, तं जहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए, ठाणरए, निसीहियारए, सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खूणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुटवा भवड, एवं निक्खित्तपुव्वा भवड़, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुव्वा भवइ, परिद्ववियपुव्वा भवड़, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ ? हंता भवइ // 421 // II संस्कृत-छाया : सः च न सुलभः प्रासुक: उञ्छ: अथ एषणीयः, न च खलु शुद्धा अमीभिः प्राभृतैः, तद्यथा-छादनत: लेपनत: संस्तार-द्वार- पिधानतः पिण्डपातैषणामाश्रित्य, सः च भिक्षुः चर्यारत: स्थानरत: निषद्यारत: शय्यासंस्तारक-पिण्डपातैषणारतः, सन्ति भिक्षवः एवं आख्यायिनः ऋजव: नियागप्रतिपन्ना: अमायाविनः व्याख्याताः, सन्ति एके प्राभृतिका उत्क्षिप्तपूर्वा भवति, एवं निक्षिप्तपूर्वा भवति परिभाजितपूर्वा भवति, परिभुक्तपूर्वा भवति, परित्यक्तपूर्वा भवति, एवं व्याकुर्वन् सम्यग् व्याकर्ता भवति ? हन्त ! सम्यग् व्याकर्ता भवति // 421 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए व्याम में गए हुए साधु को यदि कोई भद्र गृहस्थ यह कहे कि भगवन् ! यहां आहार-पानी की सुलभता है, अतः आप यहां रहने की कृपा करें। इसके उत्तर में साधु यह कहे कि यहां आहार-पानी आदि तो सब कुछ सुलभ है परन्तु निर्दोष उपाश्रय का मिलना