________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-5-1 (505) 445 v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में रूप-सौन्दर्य को देखने का निषेध किया गया है। इस में बताया गया है कि चार कारणों से वस्तु या मनुष्य के सौंदर्य में अभिवृद्धि होती है- 1. फूलों को गूंथकर उनसे माला गुलदस्ता आदि बनाने से पुष्पों का सौन्दर्य एवं उन्हें धारण करने वाले व्यक्ति की सुन्दरता भी बढ़ जाती है। 2. वस्त्र आदि से आवत्त व्यक्ति भी सुन्दर प्रतीत होती है। विविध प्रकार की पोशाक भी सौन्दर्य को बढ़ाने का एक साधन है। 3. विविध सांचों में ढालने से आभूषणों का सौन्दर्य चमक उठता है और उन्हें पहनकर स्त्री-पुरुष भी विशेष सुन्दर प्रतीत होने लगते हैं। 4. वस्त्रों की सिलाई करने से उनकी सुन्दरता बढ़ जाती है और विविध फॅशनों से सिलाई किए हुए वस्त्र मनुष्य की सुन्दरता को और अधिक चमका देते हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि विविध संस्कारों से पदार्थों के सौन्दर्य में अभिवृद्धि हो जाती है। साधारण सी लकड़ी एवं पत्थर पर चित्रकारी करने से वह असाधारण प्रतीत होने लगती है। उसे देखकर मनुष्य का मन मोहित हो उठता है। इसी तरह हाथी दांत, कागज, मणि आदि पर किया गया विविध कार्य एवं चित्रकला आदि के द्वारा अनेक वस्तुओं को देखने योग्य बना दिया जाता है और कलाकृतियां उस समय के लिए ही नहीं, बल्कि जब तक वे रहती हैं तब तक मनुष्य के मन को आकर्षित किए बिना नहीं रहती हैं। इससे उस युग की शिल्प की एक झांकी मिलती है, जो उस समय विकास के शिखर पर पहुंच चुकी थी उस समय मशीनों के अभाव में भी मानव वास्तु-कला एवं शिल्पकला में आज से अधिक उन्नति कर चुका था। इन सब कलाओं एवं सुन्दर आकृतियों तथा दर्शनीय स्थानों को देखने के लिए जाने का निषेध करने का तात्पर्य यह है कि साध का जीवन आत्म-साधना के लिए है. आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए है। अतः यदि वह इन सुन्दर पदार्थों को देखने के लिए इधर उधर जाएगा या दृष्टि दौड़ाएगा तो उससे चक्षु इन्द्रिय का विषय होगा, मन में रागद्वेष या मोह की उत्पत्ति होगी और स्वाध्याय एवं ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः संयम निष्ठ साधु को सदा अध्यात्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। उसे अपने मन एवं दृष्टि को इधर-उधर नहीं दौड़ाना चाहिए। चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना हि संयम-साधना का मूल उद्देश्य है। अतः साधु को विविध वस्तुओं एवं विविध स्थान के सौन्दर्य को देखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां पञ्चमः सप्तैकफ: समाप्तः // 卐卐