________________ 498 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सामायिक चारित्र ग्रहण करके भगवान रात-दिन सब प्राणियों के हित में संलग्न हुए / अर्थात वे सभी प्राणियों की रक्षा करने लगे। सभी देवों ने हर्षित भाव से यह सुना कि भगवान ने संयम स्वीकार कर लिया है। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है..... सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में यह अभिव्यक्त किया गया है कि जिस समय भगवान सामायिक चारित्र ग्रहण करने लगे उस समय शकेन्द्र ने सभी प्रकार के वादिंत्रों को बन्द करने का आदेश दिया और उसके आदेश से सभी देव एवं मानव शान्त चित्त से भगवान के चारित्र / ग्रहण करने के उद्देश्य को सुनने लगे। इस में यह स्पष्ट बताया गया है कि चारित्र सर्व प्राणियों का हितकारक है, प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव को अभिव्यक्त करने तथा प्राणिमात्र की रक्षा करने के उद्देश्य से ही साधक साधना के या साधुत्व के पथ पर कदम रखता है। समस्त सावध योगों का त्याग करके संयम स्वीकार करते ही भगवान को चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान हो गया, इस का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 27 // // 535 // तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खओवसमियं चरित्तं पडिवण्णस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पण्णे अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमाणसाणं मणोगयाई भावाइं जाणइ। तओ णं समये भगवं महावीरे पटवइए समाणे मित्तनाइ-सयणसंबंधिवग्गं पडिविसज्जेड़, पडिविसज्जित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हडू, तं जहा-बारस वरिसाइं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवस्सग्गा समुप्पज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सत्वे उवस्सग्गे समुप्पण्णे समाणे सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहिआसइस्सामि। तओ णं समणे भगवं महावीरे इमं एयासवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता वोसिद्धचत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कुमारग्गामं समणुपत्ते। तओ णं समणे भगवं महावीरे दोसट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिईए गुत्तीए