________________ 326 2-1-4-2-2 (471) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 2 // // 471 // से भिक्खू वा असणं वा० उवक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेत्ति वा सुटुकडेइ वा, साहुकडेइ वा, कल्लाणेड़ वा करणिज्जेड़ वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा। से भिक्खू वा असणं वा उवक्खडियं पेहाय एवं वइज्जा, तंo आरंभकडेत्ति वा, सावज्जकडेत्ति वा पयत्तकडेड वा, भद्दयं भद्देति वा, ऊसद ऊसढेड वा, रसियं मणुण्णं एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा // 471 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, अशनं वा० उपस्कृतं तथाविधं न एवं वदेत्, तद्यथा-सुकृतं इति वा सुष्ठुकृतं इति वा साधुकृतं इति वा, कल्याणं इति वा, करणीयं इति वा, एतत्-प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। स: भिक्षुः वा, अशनं वा, उपस्कृतं प्रेक्ष्य एवं वदेत्, तद्यथा- आरंभकृतं इति वा, सावद्यकृतं इति वा प्रयत्नकृतं इति वा, भद्रकं भद्रकं इति वा उच्छ्रितं उच्छ्रितं इति वा, रसितं रसितं इति वा मनोज्ञं मनोज्ञं इति वा, एतत्प्रकारों भाषां असावद्यां यावत् भाषेत // 471 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी उपस्कृत-तैयार हुए-अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार न कहे कि यह आहारादि पदार्थ सुकृत है, सुष्ठुकृत है और साधुकृत है तथा कल्याणकारी और अवश्य करणीय है। साधु इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उपस्कृत अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार कहे कि यह आहारादि पदार्थ बड़े आरम्भ से बनाया गया है। यह सावध पापयुक्त कार्य है यह अत्यन्त यत्न से बनाया हुआ है, यह भद्र अर्थात् वर्णगंधरसादि से युक्त है, सरस है और मनोज्ञ है, साधु ऐसी निरवद्य एवं निष्पाप भाषा का प्रयोग करे। IV टीका-अनुवाद : इसी प्रकार अशन आदि संबंधित एवं प्रतिषेध सूत्र दोनों जानीयेगा... किंतु ऊसढं याने उच्छित = श्रेष्ठ तथा वर्ण, गंध आदि सहित...