________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-3 (472) 327 अब और भी अभाषणीय-वचन दिखलातें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आहार आदि के सम्बन्ध में यह नहीं कहना चाहिए कि यह आहार अच्छा बना है, स्वादिष्ट बना है, बहुत अच्छे ढंग से पकाया गया है। क्योंकि, आहार 6 काय से आरम्भ से बनता है, अतः उसकी प्रशंसा एवं सराहना करना 6 कायिक जीवों की हिंसा का अनुमोदन करना है और साध हिंसा का पूर्णतया अर्थात तीन करण और तीन योग से त्यागी होता है। अतः इस प्रकार की भाषा बोलने से उसके अहिंसा व्रत में दोष लगता है इसी कारण संयमनिष्ठ मुनि को ऐसी सावध भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि कभी प्रसंगवश कहना ही हो तो वह ऐसा कह सकता है कि यह आरम्भीय (आरम्भ से बना हुआ) है, सरस, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श वाला है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि साध उसके यथार्थ रूप को प्रकट कर सकता है, परन्त, सावध भाषा में आहार आदि की प्रशंसा एवं सराहना नहीं कर सकता। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 472 // . ___ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलचरं वा से तं परिवूढकायं पेहाए नो एवं वइज्जा-थूलेड वा पमेइलेड़ वा वट्टेइ वा वज्झेड वा पाइमेड़ वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलचरं वा, से तं परिवूढकायं पेहाए एवं वइज्जा- परिवूढकाएत्ति वा उवचियकाएत्ति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुण्णइंदिइएत्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा। से भिक्खु वा विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं वइज्जा, तं जहा- गाओ दुज्झाओत्ति वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा वाहिमत्ति वा रहजोग्गत्ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं. जाव नो भासिज्जा। से भि० विरूवरूवाओ गाओ पेहाए एवं वइज्जा, तं जहा- जुवंगवित्ति वा घेणुत्ति वा रसवइत्ति वा हस्सेड़ वा महल्लेइ वा महव्वएइ वा संवहणित्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा। से भिक्खू वा० तहेव गंतुमुज्जाणाइं पव्वयाइं वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए