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________________ 338 2-1-5-1-1 (475) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वखं वा य: निर्ग्रन्थः तरुण: युगवान् बलवान् अल्पातङ्क: स्थिरसंहननः, सः एकं वस्त्रं धारयेत्, न द्वितीयं, या निर्ग्रन्थी सा चतस्त्र: सयाटिकाः धारयेत्, एकां द्विहस्तविस्तारां द्वे त्रिहस्तविस्तारे एकां चतुर्हस्तविस्तारां तथाप्रकारैः वखैः अलब्धैः, अथ पथात् एकमेकेन संसीव्येत् // 475 // III सूत्रार्थ संयमशील साधु तथा साध्वी यदि वस्त्र की गवेषणा करने की अभिलाषा रखते हों तो वे वस्त्र के सम्बन्ध में इस प्रकार जाने कि- ऊन का ऊनी वस्त्र, विकलेन्द्रिय जीवों की लारों से बनाया गया रेशमी वस्त्र, सण तथा बल्कल का वस्त्र, ताड़ आदि के पत्तों से निष्पन्न वस्त्र और कपास एवं आक की तूली से बना हुआ सूती वस्त्र एवं इस तरह के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है। जो साधु तरूण बलवान, रोग रहित और दृढ शरीर वाला है वह . एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा धारण न करे। परन्तु साध्वी चार वस्त्र-चादरें धारण करे। उसमें एक चादर दो हाथ प्रमाण चौड़ी, दो चादरे तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण चौड़ी होनी चाहिए। इस प्रकार के वस्त्र न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सी ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब वस्त्र की गवेषणा करना चाहे तब यह देखे कि- वह गरम ऊनी वस्त्र क्या उंट-भेड़ आदि के बालों से बना है ? या वह रेशमी वस्त्र क्या विभिन्न प्रकार के विकलेंद्रियों की लाला से बना है ? या वह वस्त्र क्या शण-वल्कल (वृक्ष की छाल) से बना है ? या ताड आदि के पत्तोंसे बना है या कपास-रुड़ से बना है या आकडे आदि के तूल-रुड़ से बना है इत्यादि ऐसे और अन्य प्रकार के निर्दोष एवं कल्पनीय वस्त्रों को धारण करें... अब कौन सा साधु कितने वस्त्र धारण करे, वह कहते हैं... जो साधु तरुण याने युवा है बलवान् याने समर्थ है, अल्पातंक याने नीरोगी है तथा दृढ शरीर एवं दृढ धृतिवाला है वह साधु एक हि वस्त्र देह की रक्षा के लिये धारण करे, दुसरा वस्त्र न लें, यदि वह साधु अन्य आचार्यादि के लिये अन्य वस्त्र धारण (रखता) करता है, तब वह साधु उस वस्र का खुद उपभोग न करें... किंतु जो साधु बालक है या दुर्बल है या वृद्ध है या शरीर बल अल्प है वह साधु जिस प्रकार समाधि हो उस प्रकार दो, तीन आदि वस्त्र धारण करें... यह बात स्थविर कल्पवाले साधुओं के लिये कही है, जब कि- जो साधु जिनकल्पवाले हैं वे तो अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार हि वस्त्र धारण करें, उनमें अपवाद नहि है... तथा जो साध्वीजी म. है वह चार संघाटिका धारण करें, जैसे कि- एक दो हाथ
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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