________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-1 (475) 339 प्रमाणवाली, कि जो उपाश्रय में रहतें वख्त ओढने की है, तथा दो संघाटिका तीन हाथ वाली उनमें जो उज्ज्वल (सफेद) हो वह गोचरी (भिक्षा) के समय पहने और दुसरी जो है वह बहिर्भूमी याने स्थंडिलभूमी जाने के वख्त पहनें... तथा जो संघाटिका चार हाथ प्रमाणवाली है वह समवसरण-प्रवचन-धर्मकथा सुनने के वख्त संपूर्ण शरीर को ढांककर बैठें... तथा वे संघाटिका यदि जैसी चाहिये वैसे प्रमाणवाली न मीले तब एक दुसरे के साथ सीव कर (जोड लगा कर) प्रमाणोपेत बनावें... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु 6 तरह का वस्र ग्रहण कर सकता है१. जांगमिक-जंगम-चलने-फिरने वाले ऊंट, भेड़ आदि जानवरों के बालों से बनाए हुए ऊन के वस्त्र 2. भंगिय-विभिन्न विकलेन्द्रिय जीवों की लार से, निर्मित तन्तुओं से निर्मित रेशमी वस्त्र, 3. साणिय-सण या वल्कल से बना हुआ वस्त्र, 4. पोत्तक-ताड़ पत्रों के रेशों से बनाया हुआ वस्र, 5. खोमिय-कपास से निष्पन्न वस्त्र और 6. तूलकड़े-आक के डोडों में से निकलने वाली रुई से बना हुआ वस्त्र / इस 6 तरह के वस्त्रों में सभी तरह के वस्त्रों का समावेश हो जाता है। अतः वह इनमें से किसी भी तरह का वस्त्र ग्रहण कर सकता है। . प्रस्तुत सूत्र में साधु और साध्वी के लिए वस्त्रों का परिमाण भी निश्चित कर दिया गया है। यदि साधु युवक, निरोगी, शक्ति सम्पन्न एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला हो तो वह एक वस्त्र ही ग्रहण कर सकता है, दूसरा नहीं। इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि वृद्ध, कमजोर, रोगी एवं जर्जरित शरीर वाला साधु एक से अधिक वस्त्र भी रख सकता है। . साध्वी के लिए चार वस्त्रों (चादरों) का विधान किया गया है। उसमें एक चादर दो हाथ की हो, दो चादरें तीन-तीन हाथ की हों, और एक चार हाथ की हो। साध्वी को उपाश्रय में रहते समय दो हाथ वाली चादर का उपयोग करना चाहिए, गोचरी एवं स्थंडिलभूमी-जङ्गल आदि जाते समय तीन-तीन हाथ वाली चादरों को क्रमशः काम में लेना चाहिए और अवशिष्ट चौथी (चार हाथ वाली) जिनालय एवं समावसरण में चादर को व्याख्यान के समय ओढ़ना चाहिए। इसका तात्पर्य इतना ही है कि आहार आदि के लिए स्थान से बाहर निकलते समय एवं व्याख्यान में पर्षदा के समने बैठते समय साध्वी अपने अधिकांश अङ्गों पाङ्गों को आवत करके बैठे, जिससे उन्हें देखकर किसी के मन में विकार भाव जागृत न हो। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीय शिल्पकला एवं वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नति पर था। यन्त्रों के सहयोग के बिना ही विभिन्न तरह के सुन्दर, आकर्षक एवं मजबूत वस्त्र बनाए जाते थे। अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ढाका में बनने वाली मलमल इतनी बारीक होती थी कि 20 गज की मलमल का पुरा थान एक बांस की नली में समाविष्ट