________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-3 (504) 437 किल्ला या फूल छोड के क्यारे की पाली आदि स्वरुप वर्णन करनेवाले शब्द... अथवा वप्र आदि में हो रहे गीत-नृत्य आदि नाचगान को देखने-सुनने की इच्छा से वहां वप्र-किल्ला आदि में साधु न जावें... इत्यादि शेष सभी सूत्रो के भावार्थ में भी जानें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जहां यूथ याने वर-वधू युगल क्रीडा करतें हो ऐसे वेदिका आदि स्थान में न जावें... अर्थात् वहां हो रहे नाच-गान देखने-सुनने की इच्छा से वहां न जावें... इसी प्रकार घोडे के युगल, हाथी के युगल आदि के स्थान में देखने सुनने के लिये साधु वहां न जावें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को खेतों में, जंगल में, घरों में या विवाह आदि उत्सव के समय होने वाले गीतों को या पशुशालाओं एवं अन्य प्रसंगों पर होने वाले मधुर एवं मनोज्ञ गीतों को सुनने के लिए उन स्थानों पर जाने का संकल्प नहीं करना चाहिए। ये सब तरह के सांसारिक गीत मोह पैदा करने वाले हैं, इनके सुनने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है। अतः संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को इनका श्रवण करने के लिए किसी भी स्थान पर जाने का संकल्प भी नहीं करना चाहिए। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस युग में विवाहोत्सव मनाने की परम्परा थी और वर-वधू के मिलन के समय राग-रंग को बढ़ाने वाले गीत भी गाए जाते थे। प्रस्तुत सूत्र से उस युग की सभ्यता का स्पष्ट परिज्ञान होता है और विभिन्न उत्सवों एवं उन पर गीत आदि गाने की परम्परा का भी परिचय मिलता है। उस युग में भी जनता अपने मनोविनोद के लिए विशिष्ट अवसरों पर गीत आदि गाकर अपना मनोविनोद करती थी। अतः साधु को इन गीतों को सुनने के लिए जाना तो दूर रहा, परन्तु उनके सुनने की अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिए। ___ इस सम्बन्ध में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... I सूत्र // 3 // // 504 // से भिक्खू वा० जाव सुणेइ, तं जहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणियद्वाणाणि वा महताऽऽहयनट्ट गीयवाइयतंतीतलतालतुडियपड्डुप्पवाइयट्ठाणाणि वा अण्ण तह० सद्दाइं नो अभिसं० / से भि० जाव सुणेड़, तं०- कलहाणि वा डिंबाणि वा डमराणि वा दोरज्जाणि