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________________ 254 2-1-3-1-3 (447) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब वर्षाकाल पूर्ण होने पर, कब और किस प्रकार विहार करें, इस विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में वर्षावास के क्षेत्र को चुनते समय 5 बातों का विशेष ख्याल रखने का आदेश दिया गया है- १-स्वाध्याय एवं चिन्तन मनन के लिए विशाल भूमि, 2- शहर या गांव के बाहर मल-मूत्र का त्याग करने के लिए विशाल निर्दोष भूमि, 3-साधु साध्वी के ग्रहण करने योग्य निर्दोष शय्या-तख्त आदि की सुलभता, ४-प्रासुक एवं निर्दोष आहार पानी की सुलभता और ५-शाक्यादि अन्य मत के साधुओं तथा भिखारियों के जमघट का नहीं होना / जिस क्षेत्र में उक्त सविधाएं न हों वहां साध को वर्षावास नहीं करना चाहिए। क्योंकि- विचार एवं चिन्तन की शुद्धता के लिए शान्त-एकान्त स्थान का होना आवश्यक है। बिना एकान्त स्थान के स्वाध्याय एवं ध्यान में मन एकाग्र नहीं हो सकता और मन की एकाग्रता के अभाव में साधना में तजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए सब से पहले अनुकूल स्वाध्याय भीम का होना आवश्यक है। संयम की शुद्धता को बनाए रखने के लिए परठने के लिए भी निर्दोष भूमि, निर्दोष आहार पानी एवं निर्दोष शय्या-तख्त आदि की प्राप्ति भी आवश्यक है और इनकी निर्दोषता के लिए यह भी आवश्यक है कि उस क्षेत्र में अन्यमत के भिक्षुओं का अधिक जमाव न हो। यदि वे भी अधिक संख्या में होंगे तो शुद्ध आहार-पानी आदि की सुलभता नहीं मिल सकेगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि- उस युग में अन्य मत के भिक्षु भी वर्षाकाल में एक स्थान पर रहते थे। गृहस्थ लोग सभी तरह के साधुओं को स्थान एवं आहार आदि देते थे। इसी दृष्टि से साधु के लिए यह निर्देश किया गया कि उसे वर्षावास करने के पूर्व अपने स्वाध्याय की अनुकूलता एवं संयम शुद्धि आदि का पूरी तरह अवलोकन कर लेना चाहिए क्योंकि वर्षावास, जीवों की रक्षा संयम की साधना एवं ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए ही किया जाता है। अतः इन में तेजस्विता लाने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि वर्षाकाल के समाप्त होने के पश्चात् भी वर्षा होती रहे तो साधु को क्या करना चाहिए, इसके लिए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 447 // ___अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिपुसिए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा जाव ससंताणगा, नो जत्थ बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नच्चा नो गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ||
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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