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________________ 132 2-1-1-9-2 (384) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अंगार-दोष - आहारादि को राग से, आसक्ति से वापरने से साधु के चारित्र को अंगारे लगतें हैं, चारित्र जलकर भस्म हो जाता है अतः यह “अंगार" दोष है... धूमदोष. - अंत - प्रांत नीरस - तुच्छ आहार आदि वापरते वख्त साधु को आहारादि के उपर द्वेष हो तब धूम-दोष लगता है... कारणाभावदोष - वेदना, ईर्यासमिति आदि छह (6) कारणों के सिवा यदि साधु आहारादि ग्रहण करे तब "कारणाभाव' दोष लगता है... अतः प्रासुक एवं एषणीय आहारादि प्राप्त होने के बाद भी साधु व्यासैषणा के दोष न लगे, इस प्रकार आहारादि वापरें... अब कहतें हैं कि- कभी ऐसा हो कि- वह गृहस्थ भिक्षा के समय पर प्रवेश कीये हुए उस साधु के लिये यदि आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि बनावे, तब यदि वह साधु मौन रहकर उपेक्षा करे और सोचे कि- जब वे गृहस्थ लोग आहारादि देने लगेंगे तब मैं उन्हें मना करुंगा... किंतु ऐसा करने से वह साधु माया-स्थान को प्राप्त करता है, अतः साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... इस स्थिति में साधुओं को क्या करना चाहिये.वह बात अब कहतें हैं - वह साधु पहले से हि उपयोगवाला होकर सावधान रहें, और देखे कि- गृहस्थ साधुओं के लिये आहारादि तैयार कर रहें हैं, तब साधु उन्हें कहे कि- हे भाइ ! हे बहिन ! ऐसा आधाकर्मादिवाले आहारादि हमें वापरना कल्पता नहि है... अतः आप हमारे लिये रसोइ न बनावें... यदि साधु ऐसा कहे तो भी वह गृहस्थ आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि बनाकर साधुओं को दे, तब साधु ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें..... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में दो बातों का उल्लेख किया गया है- 1. साधु आहार का समय होने से पहले अपने पारिवारिक व्यक्तियों के घरों में आहार को न जाए। क्योंकि उसे अपने यहां आया हुआ जानकर वे स्नेह एवं श्रद्धा-भक्ति वश सदोष आहार तैयार कर देंगे। इस तरह साधु को पूर्वकर्म दोष लगेगा। 2. यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए आधाकर्मी आहार बना रहा हो, तो उसे देखकर साधु को स्पष्ट कह देना चाहिए कि यह आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। यदि इस बात को जानते-देखते हुए भी साधु उस गृहस्थ को आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार बनाने से नहीं रोकता है, तो वह माया का सेवन करता है। यदि साधु के इन्कार करने के बाद भी कोई आधाकर्म आहार बनाता रहे और वह सदोष आहार साधु को देने के लिए लाए तो साधु उसे ग्रहण न करे।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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